लम्बी उहापोह और नाटकीय
घटनाक्रम के बाद
भाजपा ने राजनाथ
सिंह को अपना
अध्यक्ष चुन लिया, वे
चार साल पहले
भी अध्यक्ष रहे
हैं, इस निर्णय
को होने में
थोड़ा समय जरूर
लगा और असमंसजता
भी रही, पर
देर आयद दुरूस्त
आयद । मीडिया
ने इस मामले
में अत्यधिक नकारात्मक
सक्रियता दिखाई, आमतौर पर
ऐसी सक्रियता मीडिया
में गांधी परिवार
की सकारात्मकता को
दिखाने के लिए
आती है । मीडिया
में नितिन गडकरी
के व्यापारिक समूह
में किये गए
निवेश के
संबंध में एक
के बाद एक
खुलासों और पार्टी
में चल रहे
अन्तर्विरोध के चलते
नितिन गडकरी का
दुबारा चुना जाना
मुश्किल भरा लग
रहा था ।
अध्यक्ष चुने जाने
के बाद राजनाथ सिंह
ने भी कहा
कि वे कोई
सुखद परिस्थितियों में
भाजपा के अध्यक्ष
नहीं बने हैं
। मतलब
साफ है कि
उन्हैं उनके सामने
आने वाली चुनौतियों
का बखूबी अंदाजा
हैं ।
आमतौर पर राजनीतिक
दलों में अध्यक्ष
पर सर्वसम्मति बनाना
निश्चित ही चुनौती
भरा रहता है
। हां,
कांग्रेस जैसे दल
इसके अपवाद हैं
क्योंकि वहां नेतृत्व
गांधी परिवार में
ही पैदा होता
है । 1980 में
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से
जुड़ाव के कारण
दोहरी सदस्यता के
सवाल पर जनता
पार्टी से बाहर
हुए राजनीतिक कार्यकर्ताओं
के लिए यह
समय निश्चित ही
चुनौती भरा है
। भाजपा
द्वारा राजनीति में प्रखर
राष्ट्रवाद, हिन्दुत्व का समर्थन
और अलग चाल
चरित्र चेहरे को स्थापित
करने का प्रबल
आग्रह भाजपा की
चुनौतियों को हमेशा बढ़ाते
ही जाते हैं,
ऐसी स्थिति में
गैर संघ पृष्ठभूमि
के राजनेताओं द्वारा
भाजपा और संघ
के रिश्तो पर
खड़े किए गए
प्रश्नों का जवाब
भी भाजपा के
सामने घर में
ही दो दो
हाथ करने जैसा
है, तिस पर गैर
भाजपाई राजनीतिक दलों और
मीडिया द्वारा भाजपा को
लेकर की जा
रही टीका टिप्पणी ने
संघ परिवार के
शुभचिंतकों को ही
आहत कर दिया
है । यही
सबसे बड़ी चुनौती
है ।
वस्तुतः भाजपा के सामने
चुनौती यह नहीं
है कि राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ और
भाजपा के बीच
के संबंध कैसे
रहें ? ना
ही चुनौती इस
रूप में थी
कि नितिन गडकरी
को ही दूसरा
मौका दिया जाना
चाहिये था । यकीनन,
मीडिया और कांग्रेस
ने नितिन
गडकरी के मामले
पर इतना दबाव
बना दिया कि
वह भाजपा की
अपनी पहचान पर
संकट की तरह
दिखाई देने लगा,
और यह भी
कि जनमानस इस
स्थिति के लिए
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को
ही जिम्मेदार मानने
लगा । तो,
पहचान और साख
के संकट से
जूझती भाजपा के
समक्ष चुनौती यह
थी कि भाजपा
किस चेहरे को
सामने लाए जिससे
के जरिये अब
तक की सबसे
भ्रष्ट मनमोहन सरकार और
कांग्रेस की जनविरोधी
नीतियों से देश की
जनता को छुटकारा
दिलाया जाए । भारतीय
जनता पार्टी ऐसा
कौनसा उपक्रम करे
कि भाजपा अलग
चाल चरित्र और
चेहरे की अपनी
बात को प्रखरता
के साथ लेकर
जनता के बीच
जा सके और
उसके कार्यकर्ताओं के
गिरते मनोबल को
विजयी उंचाई दे
सके ।
वर्ष 2013 में होने
वाले 9 राज्यों के विधानसभा
चुनावों और अगले
साल होने वाले
आमचुनावों की दृष्टि
से भाजपा को
एक ऐसे चेहरे
की जरूरत थी,
जो संघ के
स्वयंसेवक होने के
नैतिक बल से
परिपूर्ण हो और
समाज के एक
बडे वर्ग का
प्रतिनिधित्व करता हो
और यह तलाश उत्तर
प्रदेश के
पूर्व मुख्यमंत्री व
भाजपा के पूर्व
अध्यक्ष राजनाथ सिंह के
रूप में पूरी
हुई । निश्चित
ही भारतीय जनता
पार्टी के इतिहास
में नितिन गडकरी
का अध्याय
जिस तरह से
समाप्त हुआ है,
वह कई सारे
प्रश्नॊ को प्रस्तुत
करके गया है,
जिसके जवाब संघ
परिवार को ही
खोजने होंगें।
सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न तो
यही है कि
क्या किसी व्यापारी या उद्योगपति
को राजनीतिक दलों
की कमान हाथ
में दी जानी
चाहिये? क्योंकि उनके कारोबारी
निर्णयों की परोक्ष
छाया भी राजनीतिक
दलों और विशेषकर
भारतीय जनता पार्टी
की विश्वसनीयता को
संकट में ही
डालती है ।
प्रश्न यह भी
है कि भारतीय
जनता पार्टी के
फैलते जनाधार
और उसकी सत्ता
से आकर्षित होकर
भाजपा की मुख्यधारा
में आए नेताओं
और संघ परिवार
के बीच रिश्तों और
उनके संगठानिक निर्णयों
में दखल की
सीमा क्या हो
? भाजपा
और संघ परिवार
को इस प्रश्न
पर भी आत्ममंथन
करना होगा कि
सत्ता के अवसरों
को बढाने के
लिए वो अपने
मूल सिद्धांतों से
कहां तक समझौता
कर सकते हैं,
क्योंकि भाजपा के शुभचिंतकों
का एक बड़ा
वर्ग उन लोगों
को ही अपने
नेतृत्वकर्ता के रूप
में देखना चाहता
है, जिनका सै़द्धांतिक
पक्ष काफी उजला
हो, इसी कारण
नरेन्द्र मोदी भाजपा
के अलावा भी
कई लोगों की
स्वाभाविक पसंद के
रूप में सबसे
आगे हैं।
आज जब पूरे
देश में
कांग्रेस की अगुवाई
वाली मनमोहन सरकार
की भद्द पिट
रही है । सत्ता
मोह में फंसे
उसके सहयोगी ही
उसका साथ छोड़ने
के लिए तैयार
बैठे हैं। महंगाई, भ्रष्टाचार, परिवारवाद,
और क्षेत्रियतावाद के
कारण भारत की
अखंडता और सार्वभौमिकता
भी चोटिल हो
रही है । महिलाओं
के प्रति अत्याचार
बढे़ हैं और
अपराधों में भी
तेजी से बढ़ोतरी
हुई है। मनमोहन सिंह का अर्थशास्त्र
विफल हो रहा
है । बढ़ती
बेरोजगारी और अवसरों
की जटिल संभावनाओं
के कारण देश
का युवा गुस्से
में हैं । मनमोहन
के मौन के
कारण सीमापार से
आतंकवादियों के हौंसले
नई उड़ान भरने
के लिए तैयार
हो रहे हैं,
और सबसे बड़ी
बात भारत के
इकबाल को अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर भी
नकारा जाने लगा
है, तो देश
को एक मजबूत
विपक्ष की जरूरत
है ।
ऐसी परिस्थितियों में देश
की निराश जनता और
राजनीतिक दलों को
भारतीय जनता पार्टी
से उसी चाल
चरित्र चेहरे की तलाश है,
जिसकी पूर्ति अटल
बिहारी वाजपेयी ने की
थी, और उससे
ज्यादा यह जिम्मेदारी
संघ परिवार की
है, जिसकी जन्मघूंटी
से भाजपा का
जन्म हुआ है,
क्योंकि इस परिस्थिति
में भी संघ
के स्वयंसेवक देश के
प्रति अपनी निष्ठां
और प्रतिबद्धता का
प्रदर्शन नहीं करेंगें,
तो कब करेंगे
?
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
( लेखक सेंटर फार
मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट
के निदेशक हैं )
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