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Saturday, January 5, 2013

इंडियन बुद्धिजीवियों की बलात्कारी बहस में भारत


दिल्ली में हुई गेंगरेप की घटना सभ्य समाज का घिनौना चेहरा है, इस बात पर किसी को भी आपत्ति नहीं है भारत में जिन भी लोगों के हाथों में सत्ता है, उनके अलावा प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह महिलाओं की गरिमा और सुरक्षा को सुनिश्चित करे। लेकिन जिस तरह का व्यवहारकथित बुद्धिजीवी- टेलीविजन शोमें  कर रहे हैं और जिस तरह की उनकी टिप्पणियां हैं, क्या वह भारत के इन बुद्धिजीवियों के सभ्य होने का प्रमाण दे रही हैं ?
प्रश्न यह उठता है कि क्या भारत में सामूहिक बलात्कार की यह पहली घटना थी ? इससे पहले कभी महिलाओं को शोषित और अपमानित नहीं किया गया ?  जो लोग इन बहसों में चिल्ला चिल्ला कर अपना पक्ष रख रहे हैं, वो यह कैसे भूल जाते हैं कि भारत में नारी को ही पूजा गया और पूजा जाता रहा है, भारत में एक भी ऐसा गांव या कस्बा ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलेगा, जिसमें माता का मंदिर ना हो   क्या उनको यह भी याद दिलाना पडे़गा कि प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भारत की सामाजिक स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा था कि भारत में अमावस्या की रात में स्वर्ण से सुसज्जित महिला अपने घर से बाहर घूम सकती है, उसकी सुरक्षा और गरिमा को कोई खतरा नहीं है
क्या यह भी याद दिलाना पडे़गा कि सीता के अपमान के कारण रावण की लंका तक इसी भारत के राम ने ध्वस्त की थी, और क्या यह भी याद दिलाने की जरूरत है कि सत्ता के मद में चूर कौरवों  द्वारा द्रोपदी का चीरहरण के प्रयास को भी वासुदेव कृष्ण  ने ही विफल किया था भारत में सदा से ही धर्म को करणीय और अकरणीय आचरण से जोड़ कर देखा गया है   यदि कोई आचरण अनुचित की श्रेणी में आता है, तो उसे अधर्म ही माना गया है, चाहे वह राजा राम द्वारा सीता को दिया गया वनवास हो या पांडवों द्वारा जुए में द्रोपदी को दांव पर लगाना   इन दोनों ही कृत्यों के कारण राजा राम और पांडवों की हजारों वर्ष बीत जाने के बाद भी आलोचना होती है।
यह नेतृत्व पर निर्भर करता है कि वह प्रजाजनों में यह विश्वास पैदा करे कि वह प्रजा की सुरक्षा और गरिमा के प्रति गंभीर है उस समय राम और कृष्ण ने तमाम विपरीत परिस्थितियों में होने के बावजूद नेतृत्व संभाला और अपनी जिम्मेदारी का पालन किया, लेकिन इस मामले में कोई भी नेतृत्वकर्ता आगे नहीं आया और ना ही किसी राजनीतिक व्यक्ति ने इस सामाजिक कलंक से आहत जनता की भावना से अपने आपको जोड़ने की कोशिश ही की। अपितु, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नारी सशक्तिकरण के स्वयंभू बुद्धिजीवियों ने इस घटना का इतनी बार बलात्कार कर डाला कि सारी घटना ही दामिनी फिल्म  के कथानक की तरह हो गई है, जिसमें नायिका अदालत में जा कर कह देती है कि उसे इंसाफ नहीं चाहिये   इस घटना से दुखी दिवंगत पीडिता के परिजनों के मनोभावों और दुखों में सहभाग करने की अपेक्षा ऐसे लोग सड़कों पर निकल कर आये हैं, जो हंसते हुए मोमबत्ती जला रहे हैं, युवाओं की तो क्या कहें, जब दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ही पीडि़ता के दुख में गायक हनीसिंह की धुनों पर नृत्य करने लगें ? क्या यह शर्मनाक नहीं है कि देश का प्रधानमंत्री राष्ट्र के नाम संवेदनहीन सन्देश की खानापूर्ति कर रहे हैं और यू पी की अध्यक्षा इस कोशिश में लगी हैं कि किसी तरह से इस घटना से उनकी पार्टी को लाभ ना मिले तो ना सही, पर राजनीतिक तौर पर नुकसान तो बिल्कुल नहीं होना चाहिये।
दरअसल, 20 साल पहले शुरू किए गए  आर्थिक नवउदारवाद ने सनातन भारतीय चिंतन और समाज परंपरा को आहत किया है बाजारवाद की इस दौड़ में नारी भी अछूती नहीं रही, उसे बेटी और बहन से बदलकर  एक उत्पाद की तरह बेचे जाने की शुरूआत हो चुकी है   बाजार की चकाचैंध ने राजनीति के उच्च मापदंडों को भी प्रभावित किया है, इसीलिए हम देखते हैं कि वीमेन, वैल्थ और वाईन का शौक़ीन अभिजात्य वर्ग उसइंडियाका निर्माण कर रहा है, जिसका एक रूप दिल्ली के गेंगरेप में दिखा। जबकि, असलियत यह है कि भारत के अधिकांश  गांवों में सरकार शौचालय तक नहीं बना पाई है, अधिकतर गांवों में लड़कियों ने इसलिये विद्यालय में जाना छोड़ दिया क्योंकि उनके विद्यालयों में शौचालय की उपलब्धता नहीं थी।
जो लोग इंडिया और भारत का अन्तर नहीं समझते, उन्हैं यह समझना जरूरी है कि गांवों और कस्बों में रहने वाली लड़कियां सबकी लाड़ली बेटियां ही होती हैं   गांव में किसी की भी लड़की हो वो सारे गांव की बेटी होती है और उसी से उसके गांव की इज्जत भी जुड़ी होती है। क्या यह गारंटीइंडियादे सकता है ? 
जरूरत इस बात की है कि सरकार और समाज दोनों ही बिगड़ती सामाजिक परिस्थितियों को समझें   समाज को यह समझना ही होगा कि सिर्फ सरकार के भरोसे सामाजिक सुरक्षा का माहौल तैयार नहीं किया जा सकता है। इसके लिए समाज के प्रत्येक नागरिक को जागरूक होने की जरूरत है। और सरकार को यह नीयत दिखानी होगी कि वह किसी भी अपराधी को दंडित करने में किसी भी प्रकार की लापरवाही नहीं करेगी और ना ही अपराधों और अपराधियों को संरक्षित करने वाले राजनेताओं, उद्योगपतियों, व्यापारियों और दबाव समूहों के सामने नतमस्तक होगी, तभी समाज के नागरिकों के मन में एक भरोसा पैदा होगा कि स्वतंत्र भारत की सरकारें किसी भी व्यक्ति की गरिमा और सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है



सुरेन्द्र चतुर्वेदी
(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च और डवलपमेंट के निदेशक  हैं)

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