देर
से ही सही,
लेकिन अब भारतीय
जनता पार्टी वापस
अपने हिन्दू ऐजेंडे
पर लौट रही
है, 1990 के बाद
यह पहला मौका
है, जब पूरी
पार्टी एकजुटता के साथ
अपने उसी रंग
में लौटने का
प्रयास कर रही
है, जिसके लिये
वो पहचानी जाती
थी। मुस्लिम
बुद्धिजीवी और राजनेता
आरिफ मोहम्मद खान
अक्सर यह कहते
हुए मिल जाते
हैं कि राम
मंदिर के निर्माण
को लेकर भारतीय
जनता पार्टी गंभीर
नहीं थी, वह
राम के जरिये
सत्ता पाना चाहती
थी, उसे सत्ता
तो मिली, पर
उससे राम का
साथ छूट गया।
बात तो उनकी
सही है ।
सत्ता के साथ
राम की पवित्रता
और पोरुष ना
हो तो वह
सत्ता भी व्यर्थ
ही है। राम
के दूर जाने
के बाद भाजपा
की राह में
काँटों की भरमार
हो गई।
राम हाशिये
पर गये तो
कश्मीर भी पीछे
छूट गया और
समान नागरिक संहिता
की बात तो
नौजवान भाजपा कार्यकर्ताओं को
भी पता नहीं
होगी, और इसी
के साथ भाजपा
का कांग्रेसीकरण शुरू
हो गया और
आम जनता में
यह विश्वास जमने
लगा कि भाजपा
और कांग्रेस में
कोई भी अंतर
नहीं है
? कांग्रेस भी सत्ता
के लिए जोड़
तोड़ कर रही
है और भाजपा
भी । देश
में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
के लिए राजनीति
में आने वाली
भाजपा के लिए
इससे बुरा दौर
हो नहीं सकता
था।
इस
दौरान भाजपा ने
उत्तरप्रदेश में
तो अपनी जगह
खोई ही, साथ
में हरियाणा, पंजाब,
महाराष्ट्र, उडीसा में भी
अपनी स्थिति को
कमजोर ही किया।
वह दूसरी बड़ी
पार्टी से सिमट
कर तीसरे चौथे
स्थान पर रह
गई और क्षेत्रिय
दलों ने भाजपा
के आधार को
कमजोर कर दिया
। मजबूत
और वैकल्पिक विपक्ष
के अभाव में
आज भारत में
राष्ट्रीय पार्टियों के सामने
क्षेत्रिय दलों के
साथ गठबंधन की
मजबूरी है ।
भारत के पूर्व
प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी
वाजपेयी अक्सर इस दौर
को एक व्यक्ति
वाली राजनीतिक पार्टी
का दौर भी
कहते थे, जो
अपनी शर्तों पर
केन्द्र सरकार को समर्थन
देने या ना
देने का फैसला
करते हैं ।
दरअसल,
सत्ता पाने की
इन मजबूरियों के
बीच उन राजनीतिक
दलों और व्यक्तियों
की मौज हो
रही है, जो
सत्ता में भागीदार
तो होते ही
हैं अपितु वे
मुख्य राजनीतिक दलों
को भी अपनी
नीतियों को बदल
देने के लिये
मजबूर कर देते
हैं। स्पष्ट जनादेश
का अभाव, दोहरी
मार कर रहा
है, एक तरफ
तो वह देश में
जातिगत भेद और
राजनीति को ताकत
दे रहा है
और दूसरी तरफ
क्षेत्रिय दलों को
भी पनपा रहा
है। उनके लिए
देश की दशा
और दिशा से
ज्यादा प्रदेश में उनका
राजनीतिक अस्तित्व बना रहना
अधिक महत्वपूर्ण है
। इस बात
के प्रत्यक्ष उदाहरण
के रूप में मुलायम
सिंह यादव, नीतिश
कुमार, मायावती, ममता बनर्जी,
करूणाकरण, नवीन पटनायक,
शिबू सोरेन, लालू
यादव, फारूख अब्दुल्ला
और जयललिता जैसे
ना जाने कितने
राजनेताओं की सूची
बनाई जा सकती
है जो अपने
स्वार्थ के चलते
ही ऐसे निर्णय
लेते हैं, जिनके
कारण उनके पक्ष
में वोट देने
वाला मतदाता अपने
आप को ठगा
हुआ महसूस करता
है और क्षेत्रवाद
और जातीयता का
जहर संवैधानिक सत्ता
को चुनौती देता
हुआ दिखाई देता
है।
भ्रष्टाचार
के नित प्रतिदिन
होने वाले खुलासों
ने साबित किया
है की देश
में बढ़ते भ्रष्टाचार
में इन दलों
की भूमिका काफी
बड़ी है, और
इनके कारण केंद्र
सरकार को भी
सी बी आई
जैसा हथियार मिल
गया है, जिसका
इस्तेमाल कर के
वह अपने अल्पमत
को बहुमत में
बदलकर देश की
सत्ता पर काबिज
है । यू
पी ऐ ने अपने
दोनों कार्यकालों में
अपने इस हथियार
का बखूबी इस्तेमाल
किया है। इस
से पहले यह
कम पूर्व प्रधानमंत्री
नरसिंह राव भी
कर चुके हैं
।
तो,
ऐसी स्थिति में
जब देश और
समाज में बिखराव
के हालात हैं।
मनमोहन सिंह के
नेतृत्ववाली केन्द्र सरकार स्वतंत्र
भारत की सबसे
दयनीय और कमजोर
सरकार साबित
हुई है । देश की
राजधानी दिल्ली में ही
कानून और व्यवस्था
का मजाक बन
चुका है। देश का
युवा, किसान, महिलाएं
और मजदूर आक्रोशित
हैं । भारत के
आर्थिक हालात बेकाबू हो
चले हैं, महंगाई
लोगों का जीना
दुश्वार कर रही
है, आंतरिक सुरक्षा
के लचर प्रबंधन
के चलते नक्सलवाद
नई नई जगहों
पर अपनी उपस्थिति
दर्ज करा रहा
है, पंजाब में
लगभग समाप्त हो
चुके अलगाववाद की
कुछ चिंगारियों को
फिर से हवा
दी जा रही
है, पड़ोसी देश नेपाल,
पाकिस्तान,चीन, भूटान
और बंगलादेश में से
कोई भी भारत
का मददगार नहीं
है। देश का
साम्प्रदायिक सद्भाव बिगड़ रहा
है ,चारों तरफ
असुरक्षा और अविश्वसनीयता
के माहौल से
घिरी केन्द्र सरकार
का इकबाल समाप्त
हो चला है, वो
हर तरफ से
बेबस दिखाई पड़
रही है ।
भारत का दुर्भाग्य
तो देखिये कि
इन परिस्थितियों में
भी देश का विपक्ष
भी आग्रह और
दुराग्रहों में बंटा
हुआ है।
तो
यह मानना ही
चाहिये कि भारत
की इस दुर्दशा
के लिए अकेले
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का
कर्मचारीपना ही जिम्मेदार
नहीं है, इसके
लिए उनके दोनों
कार्यकालों के सहयोगी
दल और बिखरा
हुआ विपक्ष भी
जिम्मेदार हैं, जिसके
कारण मनमोहन सरकार
कोई निर्णय मजबूती
के साथ नहीं
ले पाई। हांलाकि
इन नौ सालों
में अमरीका के
साथ परमाणु करार
और खुदरा क्षेत्र
में विदेशी निवेश
की अनुमति देते
समय मनमोहन सिंह
प्रधानमंत्री वाले अंदाज
में दिखे। वरना,
वो तो हर
समय सोनिया गांधी
के सेवारत ‘ कर्मचारी
प्रधानमंत्री ’ के रूप
में ही नजर
आये।
तो
आज जब जातीयता
और क्षेत्रवाद अपने
चरम पर हैं
तो भाजपा जैसे
राजनीतिक दलों को
ऐसे नारों और
मुद्दों की
आवश्यकता है, जो
मतदाताओं के अंतरतम
को भारत की
विशालता से और
उसके मुद्दों से
जोड़ सके ।
अयोध्या में राम
का भव्य मंदिर
के निर्माण का
संकल्प और उस
पर बरती
जाने वाली ईमानदारी
ही भाजपा के
परमवैभव के
स्वप्न को साकार
करेगी, क्योंकि राम सब
देखते हैं कि
भाजपा की निष्ठां
किस में हैं
,राम में या
सत्ता में ? इस बार
तो राम मान
भी जाएंगें, लेकिन
सत्ता की चाह
में पहलेवाली गलती
को दोहराया गया,
तो राम कभी
वापस नहीं आएंगें,
क्योंकि राम किसी
को ना मारे,
ना हत्यारा राम
। सब खुद
ही मर जाएंगें
कर कर खोटे
काम । यही
बात तो आरिफ
मोहम्मद खान समझा
रहे हैं ।
सुरेन्द्र
चतुर्वेदी
(लेखक
सेंटर फार मीडिया
रिसर्च एंड डवलपमेंट
के निदेशक हैं।)
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