क्यों जरुरी है भाजपा
क्या भारतीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी अप्रासंगिक हो गई है? क्या भारतीय जनता पार्टी को समाप्त हो जाना चाहिये ? क्या इससे किसी को भी या देश को कोई फायदा होगा? क्या भाजपा के अलावा अन्य कोई राजनीतिक दल ऐसा है जो राजनीति में सिर्फ सत्ता के लिये नहीं अपितु इसलिये है कि वह देश और देश के नागरिकों की दशा और दिशा बदलना चाहता है? क्या कांग्रेस, जनतादल, समाजवादी पार्टी, बसपा, तृणमूल कांग्रेस, अन्नाद्रमुक, द्रमुक जैसे व्यकितवादी और परिवादवादी राजनीतिक दलों में होने वाली उठापटक से जनता के मन में व्यापक असंतोष और गहन निराशा फैलती है? क्या इनमें से एक भी राजनीतिक दल ऐसा है, जिनके राजनेताओं की राजनीति से इतर कोई पहचान है?
आखिर क्या कारण है कि भारत का आम नागरिक, मीडिया और राजनीतिक विश्लेषक भारतीय जनता पार्टी को सिर्फ एक राजनीतिक दल ही नहीं मानते अपितु यह भी मानते हैं कि वह संगठित, अनुशासित और सुदृड़ रहे तो वह ना केवल भारत की राजसत्ता की निरंकुषता पर अंकुश लगा सकती है बल्कि एक ऐसे भारत का निर्माण करने में भी सक्षम है जिसका सपना स्वामी विवेकानन्द, योगी श्रीअरविन्द, लाल-बाल-पाल, महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बसु जैसे स्वातंत्र्य वीरों ने देखा था।
प्रश्न यह भी है कि सत्ताधारी यू पी ए की चेयरपर्सन और विभाजित भारत की सत्ता भोगने वाली कथित महारानी भारत की आत्मा को समझती हैं क्या? या भारत की आत्मा का प्रतिनिधित्व प्रणव मुखर्जी, लाल कृष्ण आडवाणी, शरद यादव, नरेन्द्र मोदी, गोविन्दाचार्य, नीतीश कुमार, प्रकाश सिंह बादल, जयललिता और कुछ हद तक मायावती, करूणानिधि, लालू, मुलायम और शरद पवार जैसे राजनेता करते हैं? यह भी विचारणीय है कि क्या कारण है कि इतने सारे प्रभावशाली राजनेताओं के होते हुए भारत की दशा और दिशा को तय करने का अधिकार उस व्यक्ति के पास केन्द्रित है जिसके लिए राजसत्ता ही धर्म है, और वह राजसत्ता में बने रहने के लिये देश को बाजार बना देने के लिए आतुर है और राजनीति को धंधा। और यह भी कि पूरा देश उसे एक ईमानदार नेता के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।
इसका जवाब एक ही है कि वर्तमान समय में ऐसे राष्ट्रीय नेताओं का अभाव है, जिन्होंने देश की आत्मा और जन के साथ साक्षात्कार किया है, वे भारत की नब्ज को पकड़ नहीं पा रहे हैं और अपने विचारों और व्यक्तित्व को विराट और विशाल करने की अपेक्षा अपने अस्तित्व की रक्षा में सन्नद्ध हैं, इसीलिये वे अपनी छोटे छोटे स्वार्थों के कारण ना केवल ओछी हरकतें कर रहे हैं अपितु देश की जनता के बीच निराशा भी पैदा करने के अपराधी बन गये हैं और यह तब और भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण हो जाता है जब यही बात संपूर्ण विकल्प का स्वप्न लेकर राजनीति में आनेवाली भारतीय जनता पार्टी के लिये भी कही जाती है।
क्या इसे देश का दुर्भाग्य नहीं कहा जाना चाहिये कि जिस भारतीय जनता पार्टी की आत्मा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा अनुप्राणित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में बसती है, जिसके लिये भारत के विभाजन के बाद लाखों कार्यकर्ताओं ने एकनिष्ठ होकर तप किया है, जिसकी विशिष्टता बरबस सबका ध्यान खींचती है, उसकी तुलना कांग्रेस, बसपा, सपा जैसे अवसरवादी और सत्ता पिपासु दलों के साथ की जाने लगी है।
सोचने की जरूरत है कि आखिर क्यों सबसे अलग “चाल चरित्र और चेहरे” वाली भाजपा सब जैसी ही राजनीतिक पार्टी बन गई है। आखिर क्यों भाजपा का अनुशासन राज्य और क्षेत्रिय स्तर के नेताओं के सामने बौना होता दिखाई दे रहा है? क्या अनुशासन की अनदेखी ही एक मात्र कारण नहीं है कि भाजपा जैसे राजनीतिक दल में क्षत्रपों की दादागिरी, भ्रष्टाचार और यौनाकर्षण के मामले ना केवल सामने आ रहे हैं अपितु भाजपा अपने राजनीतिक कार्यकर्ताओं को इस विद्रूपता और संक्रमण से बचा नहीं पा रही है। इसका दूरगामी असर भाजपा में आनेवाली नर्इ कोंपलों पर भी पड़ रहा है।
जरूरत इस बात की है कि कम से कम भाजपा के नीति नियंता और राजनेता अन्य दलों व भाजपा के बुनियादी अंतर को समझें । यह नहीं भूला जाना चाहिये कि भाजपा का जन्म राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ दोहरी सदस्यता के सवाल पर हुआ था और यही उसकी पहचान भी बनी, जिसे नकारने की कोशिश ही भाजपा के आंतरिक संघर्ष के मूल में है। यह सही है कि समाज का बहुत बड़ा वर्ग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति उपजाए गए पूर्वाग्रह से ग्रस्त है और इस कारण भाजपा को अन्य प्रभावी राजनीतिक व्यकितत्वों को साथ में लेना पड़ता है, लेकिन जो लोग मूलत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भाजपा में नहीं आये हैं वे भी इस बात को जानते और मानते हैं कि भाजपा अन्य दलों से अलग है, तो जरूरत इस बात की है भाजपा के कार्यकर्ता और राजनेता बाहरी व्यक्तियों की नीतियों और व्यक्तित्वों के प्रभाव में आने की बजाय उनमें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अलख को प्रज्जवलित करें, क्योंकि भाजपा का जीवित रहना ना केवल देश के सामान्य नागरिकों के आत्मसम्मान और गरिमा के लिये आवश्यक है अपितु यह राष्ट्र की पुकार भी है।
आखिर क्या कारण है कि भारत का आम नागरिक, मीडिया और राजनीतिक विश्लेषक भारतीय जनता पार्टी को सिर्फ एक राजनीतिक दल ही नहीं मानते अपितु यह भी मानते हैं कि वह संगठित, अनुशासित और सुदृड़ रहे तो वह ना केवल भारत की राजसत्ता की निरंकुषता पर अंकुश लगा सकती है बल्कि एक ऐसे भारत का निर्माण करने में भी सक्षम है जिसका सपना स्वामी विवेकानन्द, योगी श्रीअरविन्द, लाल-बाल-पाल, महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बसु जैसे स्वातंत्र्य वीरों ने देखा था।
प्रश्न यह भी है कि सत्ताधारी यू पी ए की चेयरपर्सन और विभाजित भारत की सत्ता भोगने वाली कथित महारानी भारत की आत्मा को समझती हैं क्या? या भारत की आत्मा का प्रतिनिधित्व प्रणव मुखर्जी, लाल कृष्ण आडवाणी, शरद यादव, नरेन्द्र मोदी, गोविन्दाचार्य, नीतीश कुमार, प्रकाश सिंह बादल, जयललिता और कुछ हद तक मायावती, करूणानिधि, लालू, मुलायम और शरद पवार जैसे राजनेता करते हैं? यह भी विचारणीय है कि क्या कारण है कि इतने सारे प्रभावशाली राजनेताओं के होते हुए भारत की दशा और दिशा को तय करने का अधिकार उस व्यक्ति के पास केन्द्रित है जिसके लिए राजसत्ता ही धर्म है, और वह राजसत्ता में बने रहने के लिये देश को बाजार बना देने के लिए आतुर है और राजनीति को धंधा। और यह भी कि पूरा देश उसे एक ईमानदार नेता के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।
इसका जवाब एक ही है कि वर्तमान समय में ऐसे राष्ट्रीय नेताओं का अभाव है, जिन्होंने देश की आत्मा और जन के साथ साक्षात्कार किया है, वे भारत की नब्ज को पकड़ नहीं पा रहे हैं और अपने विचारों और व्यक्तित्व को विराट और विशाल करने की अपेक्षा अपने अस्तित्व की रक्षा में सन्नद्ध हैं, इसीलिये वे अपनी छोटे छोटे स्वार्थों के कारण ना केवल ओछी हरकतें कर रहे हैं अपितु देश की जनता के बीच निराशा भी पैदा करने के अपराधी बन गये हैं और यह तब और भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण हो जाता है जब यही बात संपूर्ण विकल्प का स्वप्न लेकर राजनीति में आनेवाली भारतीय जनता पार्टी के लिये भी कही जाती है।
क्या इसे देश का दुर्भाग्य नहीं कहा जाना चाहिये कि जिस भारतीय जनता पार्टी की आत्मा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा अनुप्राणित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में बसती है, जिसके लिये भारत के विभाजन के बाद लाखों कार्यकर्ताओं ने एकनिष्ठ होकर तप किया है, जिसकी विशिष्टता बरबस सबका ध्यान खींचती है, उसकी तुलना कांग्रेस, बसपा, सपा जैसे अवसरवादी और सत्ता पिपासु दलों के साथ की जाने लगी है।
सोचने की जरूरत है कि आखिर क्यों सबसे अलग “चाल चरित्र और चेहरे” वाली भाजपा सब जैसी ही राजनीतिक पार्टी बन गई है। आखिर क्यों भाजपा का अनुशासन राज्य और क्षेत्रिय स्तर के नेताओं के सामने बौना होता दिखाई दे रहा है? क्या अनुशासन की अनदेखी ही एक मात्र कारण नहीं है कि भाजपा जैसे राजनीतिक दल में क्षत्रपों की दादागिरी, भ्रष्टाचार और यौनाकर्षण के मामले ना केवल सामने आ रहे हैं अपितु भाजपा अपने राजनीतिक कार्यकर्ताओं को इस विद्रूपता और संक्रमण से बचा नहीं पा रही है। इसका दूरगामी असर भाजपा में आनेवाली नर्इ कोंपलों पर भी पड़ रहा है।
जरूरत इस बात की है कि कम से कम भाजपा के नीति नियंता और राजनेता अन्य दलों व भाजपा के बुनियादी अंतर को समझें । यह नहीं भूला जाना चाहिये कि भाजपा का जन्म राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ दोहरी सदस्यता के सवाल पर हुआ था और यही उसकी पहचान भी बनी, जिसे नकारने की कोशिश ही भाजपा के आंतरिक संघर्ष के मूल में है। यह सही है कि समाज का बहुत बड़ा वर्ग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति उपजाए गए पूर्वाग्रह से ग्रस्त है और इस कारण भाजपा को अन्य प्रभावी राजनीतिक व्यकितत्वों को साथ में लेना पड़ता है, लेकिन जो लोग मूलत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भाजपा में नहीं आये हैं वे भी इस बात को जानते और मानते हैं कि भाजपा अन्य दलों से अलग है, तो जरूरत इस बात की है भाजपा के कार्यकर्ता और राजनेता बाहरी व्यक्तियों की नीतियों और व्यक्तित्वों के प्रभाव में आने की बजाय उनमें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अलख को प्रज्जवलित करें, क्योंकि भाजपा का जीवित रहना ना केवल देश के सामान्य नागरिकों के आत्मसम्मान और गरिमा के लिये आवश्यक है अपितु यह राष्ट्र की पुकार भी है।
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं)
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