अन्ना हजारे के अनशन पर बैठने के साथ ही सरकार की तरफ से यह प्रश्न दागा जाने लगा है कि आखिर अन्ना चाहते क्या है ? क्या एक जनलोकपाल विधेयक देश में से भ्रष्टाचार को समाप्त कर देगा? सरकारी पक्ष का यह प्रश्न बेतुका नहीं है, हां, यह जरूर है कि यह समय इस प्रश्न को पूछने का नहीं है। यह समय उन व्यवस्थाओं को धार देने का है, जिनके कारण अन्ना हजारे को अपने समर्थकों के साथ सड़कों पर आकर देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था को चुनौती देनी पड़ रही है।
आजादी की 64वीं वर्षगांठ के अगले ही दिन गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के अनशन पर बैठने के साथ ही देश भर में एकसाथ प्रगटी नई चेतना और उर्जा से पूरी दुनिया अचंभित है। जो लोग पहले अन्ना हजारे और उनकी सिविल सोसायटी को महज कुछ पढे लिखे बुद्धिविलासी लोगों का ड्रामा करार दे रहे थे, वे भारत के इस नये चेहरे को देखकर जड़ हो गये हैं। राजनेताओं को यह समझ में नहीं आ रहा है कि अन्ना हजारे की इस जनलोकपालवादी मुहीम का वो समर्थन करें अथवा विरोध। राजनीतिक दलों की इसी असमंजसता का लाभ उठाते हुए सत्ताधारी दल को अचानक ही लोकतंत्र का अपहरण होता दिखाई देने लगा है। दूसरी तरफ देश की जनता इस उम्मीद के साथ भारत माता की जय और वंदेमातरम~ का जयघोष कर रही है कि उसके जयघोष से यह भ्रष्ट व्यवस्था बदल जायेगी और भारत विकास की राह पर दौड़ने लगेगा।
यह एक रोचक तथ्य है कि जब से भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता के बीच सुगबुगाहट शुरू हुई है और देश ही नहीं अपितु विदेशो में भी ईमानदारी और शालीनता का पर्याय बने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में एक के बाद दूसरे भ्रष्टाचार के मामले सामने आने लगे हैं तथा इन मामलों में प्रधानमंत्री और उनके मंत्रियों की भूमिका पर अंगुली उठने लगी है, और देश ने पूर्ण प्रखरता से भ्रष्टाचार के विरोध में अपना मत प्रकट किया, जगह जगह जनआंदोलन की आधारभूमि तैयार होने लगी है, लेकिन इतना सब होने के बाद भी एक भी जगह से यह समाचार सुनने को नहीं मिला कि सरकारी या निजी क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारियों, अधिकारियों अथवा व्यापारियों ने अपने कार्यकलापों में ईमानदारी और शुचिता को महत्व दिया हो, या भ्रष्टाचारियों के हौंसले पस्त हुए हों। ना हीं यह समाचार सुनने में आया कि बच्चों ने अपने माता पिता से यह प्रश्न पूछा हो कि आपकी कमाई पूरी तरह ईमानदारी की है ना ?
प्रश्न यह है कि 1947 के बाद से ही संविधान में समय समय पर कानून जुड़ते और संशोधित होते रहे हैं, परंतु क्या इन कानूनों के अस्तित्व में आने के बाद भी देश के सामान्य नागरिकों की किस्मत और उनके हालातों में कोई बदलाव आया है ? क्या अन्ना हजारे की सिविल सोसायटी द्वारा प्रस्तुत जनलोकपाल विधेयक देश के तंत्र में व्यापक बदलाव की रूपरेखा प्रस्तुत करता है ? यदि नहीं, तो फिर जनलोकपाल हो या अन्य कोई विधेयक, वो भारत के आम आदमी की तकदीर और तस्वीर को कैसे बदलेगा?
यह बात समझे जाने की जरूरत है कि देश के प्रधानमंत्री और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को निगरानी में लाने के लिये किसी विधेयक से ज्यादा उस नैतिक बल की आवश्यकता है, जो समाज की आंतरिक चेतना से उपजता है। यह कैसे संभव है कि भ्रष्ट तरीके से सत्ता में आने वाले लोगों से हम शुचिता की उम्मीद रखें ? जो समाज देश की बजाय क्षेत्रियता,जाति, पंथ, धर्म और भाषाई आधार पर अपना मतदान करता है, वो एक सबल राष्ट्र का सपना भी कैसे देख सकता है?
यह सही है कि सत्ता में बैठे लोगों ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये व्यवस्था को ना केवल दूषित किया है, अपितु उसको विषाक्त कर दिया है कि भारत के नागरिकों को उस पर से विश्वास उठ गया है, यही कारण है कि जिन राजनीतिक दलों पर भारत की जनता को समर्थ और सबल शासन देने की जिम्मेदारी है, जनता का उन्हीं पर विश्वास नहीं है। अन्ना हजारे के पीछे देश भर के करोड़ों लोगों का आना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि सभी राजनीतिक दल देश की जनता का विश्वास खो चुके हैं।
यह समझने की जरूरत है कि लोकतंत्र में किसी भी समस्या का निदान तो राजनीतिक दलों की आपसी समझ और प्रशासनिक क्षमता से ही हो सकता है, अन्ना हजारे या बाबा रामदेव जैसे सामाजिक कार्यकर्ता किसी राष्ट्र और उसके जनमानस की पीड़ा को तो आवाज दे सकते हैं, परंतु उनके पास उस पीड़ा से मुक्ति दिलाने का ना तो अधिकार है और ना ही उपाय।
यह गौरतलब है कि अन्ना हजारे का आंदोलन भ्रष्ट राजनेताओं, अधिकारियों और उद्योगपतियों के खिलाफ तीव्र और कठोर न्यायिक कार्यवाही की बात नहीं करता है, और ना ही केंद्र सरकार को विदेशो में जमा काला धन के खाताधारकों को सार्वजनिक करने की मांग ही करता है, सिविल सोसायटी इस बात की पैरवी नहीं करती कि केंद्र सरकार एक ऐसा कानून लेकर आये जो जनता को निश्चित दिनों के भीतर सरकारी आवश्यकताओ की पूर्ति की गांरटी देती हो, वो यह भी नहीं कहती कि देश भर की सरकारें लोकायुक्त और सूचना आयुक्तों के प्रति ना केवल जवाबदेह हों अपितु उनकी बातों और निर्णयों को गंभीरता के साथ भी लें।
प्रश्न सिर्फ देश पर एक और विधेयक लाद देने का नहीं है, प्रश्न यह है कि जिस देश में भ्रष्टाचार को रोकने के लिए विभाग बने हुए हैं, उनके लिए अलग से अदालतें बनीं हुई हैं, सूचना आयुक्त, सतर्कता आयुक्त और लोकायुक्त जैसे संवैधानिक व्यवस्थाओं को पाला पोसा जा रहा है, उस देश के सरकारी और निजी तंत्र को भ्रष्टाचार की घुन कैसे खोखला कर सकती है? इसका मतलब सिर्फ इतना है कि राजसत्ता अपने कर्तव्य का पालन करने में लगातार विफल साबित हो रही है। दूसरे अर्थ में यह भी कहा जा सकता है कि देश की जनता ने जिन उद्देश्यों के लिए लोकतंत्र को स्वीकार किया था, भारत पर शासन करने वाले सभी राजनीतिक दल अपने उसी कर्तव्य की पूर्ति करने में विफल रहे हैं । तो जिन लोगों को शासन प्रणाली को बिना भेदभाव और पूरी ईमानदारी से संचालित करना नहीं आता, वे लोग व्यक्तिगत जीवन में भले ही ईमानदारी के पुतले हों परन्तु वे एक देश के खेवनहार नहीं हो सकते। अत: उनके लिये यह ही उचित है कि वे सिंहासन खाली करें, जिससे कि जनता एक सक्षम और समर्थ भारतीय के हाथों में राज सौंप सके।
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं)
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