पिछले दिनों से देश की सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा में कोई काम काज नहीं हो रहा है। विपक्ष की मांग है कि 2 जी स्पैक्ट्रम घोटाले की जांच के लिये जे पी सी बनाई जाए। परन्तु सरकार विपक्ष की इस मांग के आगे झुकने के लिए तैयार ही नहीं है। पूरा विपक्ष और उच्चतम न्यायालय सरकार से न्यायसंगत निर्णय लेने की अपेक्षा कर रहे हैं लेकिन सरकार यह पता लगाने की इच्छुक ही नहीं दिखती कि क्या वाकई में 2 जी स्पैक्ट्रम के आवंटन में दूर संचार मंत्रालय के मंत्री और अधिकारियों ने भ्रष्ट आचरण कर देश को एक लाख पचहत्तर हजार करोड रूपये़ के राजस्व का नुकसान पहुँचाया है?
यह याद रखे जाने की जरूरत है कि कांग्रेस ने अपना लोकसभा चुनाव ‘ कांग्रेस का हाथ- आम आदमी के साथ’ का नारा देकर जीता था। लेकिन इसी आम आदमी के लिए काम आने वाला सरकारी खजाना लुट गया और सरकार अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए विपक्ष और उच्चतम न्यायालय के अलावा आम आदमी की पुकार को भी अनसुना कर रही है। तो यह क्यों नहीं माना चाहिये कि कांग्रेस नीत संप्रग सरकार अपने मतदाता और देश के प्रति जवाबदेही और उत्तर दायित्व से भाग रही है? क्या सरकार में बैठे लोगों को सत्ता सुख को बनाये रखने के लिए देश के भाग्य और उसके हालात के साथ खेलने की पूरी छूट मिलनी चाहिये या केन्द्र सरकार के लिए भ्रष्टाचार कोई मुद्दा ही नहीं रह गया है।
विपक्ष द्वारा जे पी सी की मांग करना और उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रधानमंत्री से जवाब की अपेक्षा करना साधारण घटना नहीं है। इसका मतलब यह है कि विपक्ष और न्यायालय दोनों का ही संप्रग सरकार की प्रशासनिक व्यवस्थाओं से भरोसा उठ गया है। इसलिये वे अपनी ‘निगरानी’ में तथ्यों का पता लगाना चाहते हैं। मुख्य सर्तकता आयुक्त थॉमस को इस पूरी जांच प्रक्रिया से अलग रहने के लिए कहना भी सरकार की पारदर्शिता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है।
ऐसा पहली बार नहीं है कि विपक्ष ने सयुंक्त संसदीय जांच दल की मांग उठाई है। सबसे पहले बोफोर्स तोप घोटाले की जांच करने की मांग को लेकर 6 अगस्त 1987 को पहली जे पी सी का गठन हुआ था। तब स्व0 राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे। उसके बाद स्व0 नरसिंह राव के कार्यकाल में हुए हर्षद मेहता घोटाले की जांच के लिए 6 अगस्त 1992 को स्व0 रामनिवास मिर्धा के नेतृत्व जे पी सी का गठन हुआ। वाजपेयी के प्रधानमंत्रीत्व काल में भी 26 अप्रेल 2001 को शेयर मार्केट घोटाले के लिए ले0 जनरल प्रकाश मणि त्रिपाठी की अध्यक्षता में तीसरी जे पी सी बनी और 2003 में शरद पवार के नेतृत्व में पेय पदार्थों में कीटनाशक की मिलावट को लेकर पिछली संप्रग सरकार ने जे पी सी का गठन किया। तब भी श्री मनमोहन सिंह ही प्रधानमंत्री थे। लेकिन एक बोफोर्स वाले मामले के अलावा सरकार का इतना अडियल रूख कभी नहीं रहा। हालांकि ये सरकार पर है कि संयुक्त संसदीय जांच दल की रिपोर्ट और सलाह को माने या ना माने। क्योंकि यदि सरकार ने हर्षद मेहता और शेयर मार्केट घोटालों की रपटों और सुझावों पर ध्यान दिया होता तो 7 हजार करोड़ का सत्यम घोटाले को होने से रोका जा सकता था।
दरअसल, केन्द्र सरकार को नियंत्रित करने वाले नेता और दलाल इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि सरकार के अधीन चलने वाली किसी भी जांच एंजेसी को वे लोग प्रभावित करने की स्थिति में हैं। अतः 2 जी स्पैक्ट्रम की जांच में जिन नेताओं, दलालों, उद्योगपतियों और पत्रकारों की सांठ गांठ है उन्हैं और उनके भविष्य पर किसी प्रकार का संकट उपस्थित नहीं होगा, लेकिन यदि जे पी सी की मांग स्वीकारली जाती है तो आर्थिक घोटाले के इस पूरे तंत्र की बखिया उधेड़ी जा सकती है और कई ऐसे नाम भी सामने आ सकते हैं, जो अभी तक इस पूरे प्रकरण में पर्दे के पीछे हैं।
आश्चर्य तो तब होता है जब ईमानदारी, सज्जनता और सभ्यता की मिसाल माने जाने वाले प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह की बेचारगी सबके सामने आती है। देश पर जब भी आंतरिक या बाहरी संकट हो उस समय सक्षम और समर्थ नेतृत्व की जरूरत होती है, लेकिन इन राष्ट्रमंडल खेल हों या 2जी स्पैक्ट्रम घोटाला प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह एक कमजोर और लाचार प्रधानमंत्री साबित हुए हैं, जरूरत इस बात की है कि वे अपनी भूमिका में बदलाव लायें और निर्देश लेने की बजाय सरकार और पार्टी को निर्देशित करें।
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
लेखक सेंटर फॉर मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं।
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