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Sunday, January 9, 2011

एक गुमनाम खबर से उपजते सवाल

बीते सप्ताह पाकिस्तान से एक खबर आई, खबर पाकिस्तान में रह रहे हिन्दुओं के उत्पीड़न की थी, इसलिए उसको भारत के अखबारों में जगह नहीं मिली। उसको दफन होना ही था, क्योंकि उस खबर को प्रमुखता मिलती तो हमारे सेकुलर मीडियाकर्मियों के “सांप्रदायिक” हो जाने का खतरा था। दरअसल, भारत में ही हिन्दुओं के उत्पीडन की खबर को हमारे मीडिया मित्र खबर नहीं मानते, तो पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दुओं की पुकार पर उनका ध्यान नहीं जाने पर अचरज कैसा?

यह खबर पाकिस्तानी अखबार द एक्सप्रेस ट्रीब्यून ने प्रकाशित की है। इस अखबार ने कहा है कि बलूचीस्तान में रहने वाले हिन्दु अल्पसंख्यकों की जान माल को खतरा बढ़ता जा रहा है और लगभग100 हिन्दू परिवारों ने वहां से पलायन कर दिया है। बलूचीस्तान के मस्तांग क्षेत्र के पांच हिन्दू परिवारों ने तो भारत में शरण भी ले ली है और अन्य हिन्दू परिवार भी अपनी जान बचाने के लिए भारत में शरण लेने के लिये प्रयासरत हैं। हकीकत यह है कि बलूचीस्तान के दक्षिणी पश्चिमी इलाके में पिछले साल 291हिन्दुओं का अपहरण किया गया है । बलूचीस्तान की राजधानी क्वेटा में ही पिछले साल 8 हिन्दुओं की हत्याओं का समाचार है। इन हिन्दुओं में वहां के प्रतिष्ठित व्यापारी और धर्माचार्य तक शामिल हैं। पिछले साल ही क्वेटा के प्रतिष्ठित व्यापारी जुहारी लाल का अपहरण हुआ और वो फिरौती की बड़ी रकम देकर ही छूटे।

सच्चाई यह है कि पाकिस्तान का प्रशासन हिन्दुओं के उत्पीड़न को मौन स्वीकृति प्रदान करता है। इसका खुलासा भी पाकिस्तान अल्पसंख्यक आयोग द्वारा 2003 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में हुआ। अल्पसंख्यक आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि मुस्लिम बस्तियों से निकलने वाली लड़कियों के साथ मुस्लिम लड़के अभद्र व्यवहार करते हैं। हिन्दू छात्राओं को मुस्लिम बनने के लिए बाध्य किया जाता है। उनका अपहरण कर लिया जाता है। प्रशासन की अनदेखी का सबसे ज्यादा फायदा वहां के मौलवी उठा रहे हैं, जो आये दिन मस्जिदों से हिन्दू धर्म स्थलों और संपन्न व्यापारियों के प्रतिष्ठानों को तोड़ने का फरमान जारी करते रहते हैं।

यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि 1947 में बलूचिस्तान में हिन्दुओं की आबादी २२ प्रतिशत थी। परन्तु अंग्रेजों ने बदनीयती के साथ 11 अगस्त 1947 को बलूचिस्तान को एक देश के रुप में मान्यता देकर अलग कर दिया। इस विभाजन को लोर्ड माउण्टबेटन और जिन्ना ने हस्ताक्षर करके स्वीकार कर दिया था। जब यह विभाजन हो रहा था, तो सत्ता की लालसा में रणनीति बनाने में व्यस्त भारत के कांग्रेसी नेता अंग्रेजों की इस घातक कूटनीति के खिलाफ कुछ नहीं बोले। बाद में कश्मीर पर कब्जा करने में विफल रहने के बाद पाकिस्तान ने 1948 में बलूचिस्तान पर कब्जा कर लिया। तब से लेकर आज तक पाकिस्तान सरकार ने बलूचिस्तान में रहने वाले हिन्दुओं और बलूची नागरिकों पर असंख्य अत्याचार किये हैं। पाकिस्तानी सेना के इन अत्याचारों से परेशान होकर वहां के युवा आंदोलन की राह पर हैं। जबकि हिन्दू बलूचिस्तान से पलायन करने को मजबूर हैं।

बलूचिस्तान में हिन्दुओं पर अत्याचार की कहानी पुरानी है। वहां पर हिन्दुओं पर अत्याचार का आलम यह है कि मार्च 2005 में सुरक्षा बलों ने अंधाधुंध गोली चलाकर 33 हिन्दुओं की हत्याएं कर दी। पाकिस्तान सरकार की इस बर्बरतापूर्ण कार्यवाही के बाद बलूचिस्तान में रहने वाले हिन्दुओं और सिखों में इतना भय बैठ गया कि वे अपनी जान बचाने के लिए पाकिस्तान से पलायन कर भारत आ गये। पिछले दिनों पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की जनसंख्या का एक आंकड़ा प्रकाशित हुआ है। इसके अनुसार भारत के विभाजन के समय पाकिस्तान में 25 प्रतिशत हिन्दू थे, जो 2010 में 1.6 प्रतिशत रह गये हैं। अकेले बलूचिस्तान में हिन्दू 22 प्रतिशत से घटकर २ प्रतिशत रह गये हैं। पाकिस्तान ही क्यों यही हाल बंगलादेश में भी है। जहां 1971 में हिन्दुओं की संख्या 33 प्रतिशत थी और 2010 में यह 7 प्रतिशत ही रह गई ।

यह घटना कुछ प्रश्नों को जन्म देती है। यह सवाल हमारे और हमारे नेताओं की मानसिकता का प्रदर्शन करते हैं। सवाल यह है कि क्या भारत के संवेदनशील मीडिया का यह कर्तव्य नहीं था, कि वह पड़ोसी देशो में हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचारों पर भारत के नागरिकों का ध्यान आकर्षित करता ? और क्या भारत सरकार ने इन परिस्थियों में अपने उत्तरदायित्व का उचित पालन किया? क्या भारत के नागरिकों ने पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दू परिवारों की स्थिति-परिस्थिति को लेकर कभी अपनी चिंता प्रकट की?

दरअसल, हम सभी अंग्रेजों के चले जाने के बाद अपनी ‘आजादी’ में इतने डूब गये कि हमें अपने परिवार, अपने पड़ोस, अपने समाज और देश के बारे में चिंता करने की आवशयकता ही नहीं महसूस हुई । देश के विभाजन को स्वीकारने वाले नागरिकों ने उन देशो में रह गए हिन्दुओं की निर्मम हत्याओं का प्रतिवाद नहीं किया। इतना ही नहीं अपने ही देश में विस्थापित कर दिये गए कश्मीरियों के प्रति भी हमारी संवेदना जागृत नहीं हो सकी। हमारे ही बीच के प्रतिष्ठित साहित्यकार और राजनेता कश्मीर के भारत का अविभाज्य अंग होने पर सवाल खडे करते रहे और विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र खामोश रहा ?

हकीकत यह है कि आजादी से लेकर आज तक भारत के पास सक्षम और सबल नेतृत्व का भारी अभाव रहा । एक श्रीमती इंदिरा गांधी को छोड़ दिया जाए, तो अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस या इंदिरा कांग्रेस ने एक भी ऐसा नेतृत्व इस देश के सामने नहीं रखा, जिसकी धाक को भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों ने स्वीकार किया हो।

यह वीरभूमि मां भारती का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि विगत बारह सौ वर्षो में इस भूमि से उपजने और पल्लवित होने वाली संस्कृति और सभ्यता को तिल तिल कर समाप्त किया जा रहा है और आज स्थिति यहां तक आ पहुंची है कि हिन्दुओं के ही धर्मान्तरित वंशज इस्लाम के नाम पर भारत भारती का चीरहरण करने में गौरव महसूस करते हैं और राम, कृषण, महावीर,बुद्ध, विषणुगुप्त, चाणक्य के देश के निवासी असहाय और बेबस होकर सत्यमेव जयते की हत्या होते हुए देख रहे हैं।

आजाद भारत का लोकतान्त्रिक स्वरूप ही भारत माता के लिए अभिशाप के रूप में सामने आ रहा है, जहां भारत में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है, जिनकी राष्ट्र के प्रति निष्ठां संदेहास्पद है और राजनीतिक दल राजनीतिक कारणों और सत्ता पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए ऐसे नागरिकों और समाजों का सरंक्षण में लिप्त हैं । जरूरत इस बात की है भारतीय समाज अपनी मूर्छा को त्याग कर अपनी आंतरिक शक्ति का प्रकटन करे। भारतीय समाज का बलशाली होना भारत के लिए इतना जरूरी नहीं है, जितना की सम्पूर्ण मानव सभ्यता के लिए है, क्योंकि पूरी दुनिया में भारतीय संस्कृति ही ऐसी एक मात्र संस्कृति है जो तमसो मां ज्योतिर्गमय और सत्यमेव जयते का उद्घोष करती है ।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी

लेखक सेण्टर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं .

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