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Monday, December 6, 2010

क्यों नहीं बनाई जा रही जे पी सी

पिछले दिनों से देश की सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा में कोई काम काज नहीं हो रहा है। विपक्ष की मांग है कि 2 जी स्पैक्ट्रम घोटाले की जांच के लिये जे पी सी बनाई जाए। परन्तु सरकार विपक्ष की इस मांग के आगे झुकने के लिए तैयार ही नहीं है। पूरा विपक्ष और उच्चतम न्यायालय सरकार से न्यायसंगत निर्णय लेने की अपेक्षा कर रहे हैं लेकिन सरकार यह पता लगाने की इच्छुक ही नहीं दिखती कि क्या वाकई में 2 जी स्पैक्ट्रम के आवंटन में दूर संचार मंत्रालय के मंत्री और अधिकारियों ने भ्रष्ट आचरण कर देश को एक लाख पचहत्तर हजार करोड रूपये़ के राजस्व का नुकसान पहुँचाया है?
यह याद रखे जाने की जरूरत है कि कांग्रेस ने अपना लोकसभा चुनाव ‘ कांग्रेस का हाथ- आम आदमी के साथ’ का नारा देकर जीता था। लेकिन इसी आम आदमी के लिए काम आने वाला सरकारी खजाना लुट गया और सरकार अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए विपक्ष और उच्चतम न्यायालय के अलावा आम आदमी की पुकार को भी अनसुना कर रही है। तो यह क्यों नहीं माना चाहिये कि कांग्रेस नीत संप्रग सरकार अपने मतदाता और देश के प्रति जवाबदेही और उत्तर दायित्व से भाग रही है? क्या सरकार में बैठे लोगों को सत्ता सुख को बनाये रखने के लिए देश के भाग्य और उसके हालात के साथ खेलने की पूरी छूट मिलनी चाहिये या केन्द्र सरकार के लिए भ्रष्टाचार कोई मुद्दा ही नहीं रह गया है।
विपक्ष द्वारा जे पी सी की मांग करना और उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रधानमंत्री से जवाब की अपेक्षा करना साधारण घटना नहीं है। इसका मतलब यह है कि विपक्ष और न्यायालय दोनों का ही संप्रग सरकार की प्रशासनिक व्यवस्थाओं से भरोसा उठ गया है। इसलिये वे अपनी ‘निगरानी’ में तथ्यों का पता लगाना चाहते हैं। मुख्य सर्तकता आयुक्त थॉमस को इस पूरी जांच प्रक्रिया से अलग रहने के लिए कहना भी सरकार की पारदर्शिता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है।
ऐसा पहली बार नहीं है कि विपक्ष ने सयुंक्त संसदीय जांच दल की मांग उठाई है। सबसे पहले बोफोर्स तोप घोटाले की जांच करने की मांग को लेकर 6 अगस्त 1987 को पहली जे पी सी का गठन हुआ था। तब स्व0 राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे। उसके बाद स्व0 नरसिंह राव के कार्यकाल में हुए हर्षद मेहता घोटाले की जांच के लिए 6 अगस्त 1992 को स्व0 रामनिवास मिर्धा के नेतृत्व जे पी सी का गठन हुआ। वाजपेयी के प्रधानमंत्रीत्व काल में भी 26 अप्रेल 2001 को शेयर मार्केट घोटाले के लिए ले0 जनरल प्रकाश मणि त्रिपाठी की अध्यक्षता में तीसरी जे पी सी बनी और 2003 में शरद पवार के नेतृत्व में पेय पदार्थों में कीटनाशक की मिलावट को लेकर पिछली संप्रग सरकार ने जे पी सी का गठन किया। तब भी श्री मनमोहन सिंह ही प्रधानमंत्री थे। लेकिन एक बोफोर्स वाले मामले के अलावा सरकार का इतना अडियल रूख कभी नहीं रहा। हालांकि ये सरकार पर है कि संयुक्त संसदीय जांच दल की रिपोर्ट और सलाह को माने या ना माने। क्योंकि यदि सरकार ने हर्षद मेहता और शेयर मार्केट घोटालों की रपटों और सुझावों पर ध्यान दिया होता तो 7 हजार करोड़ का सत्यम घोटाले को होने से रोका जा सकता था।
दरअसल, केन्द्र सरकार को नियंत्रित करने वाले नेता और दलाल इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि सरकार के अधीन चलने वाली किसी भी जांच एंजेसी को वे लोग प्रभावित करने की स्थिति में हैं। अतः 2 जी स्पैक्ट्रम की जांच में जिन नेताओं, दलालों, उद्योगपतियों और पत्रकारों की सांठ गांठ है उन्हैं और उनके भविष्य पर किसी प्रकार का संकट उपस्थित नहीं होगा, लेकिन यदि जे पी सी की मांग स्वीकारली जाती है तो आर्थिक घोटाले के इस पूरे तंत्र की बखिया उधेड़ी जा सकती है और कई ऐसे नाम भी सामने आ सकते हैं, जो अभी तक इस पूरे प्रकरण में पर्दे के पीछे हैं।
आश्चर्य तो तब होता है जब ईमानदारी, सज्जनता और सभ्यता की मिसाल माने जाने वाले प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह की बेचारगी सबके सामने आती है। देश पर जब भी आंतरिक या बाहरी संकट हो उस समय सक्षम और समर्थ नेतृत्व की जरूरत होती है, लेकिन इन राष्ट्रमंडल खेल हों या 2जी स्पैक्ट्रम घोटाला प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह एक कमजोर और लाचार प्रधानमंत्री साबित हुए हैं, जरूरत इस बात की है कि वे अपनी भूमिका में बदलाव लायें और निर्देश लेने की बजाय सरकार और पार्टी को निर्देशित करें।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी
लेखक सेंटर फॉर मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं।

Sunday, November 14, 2010

सोनिया गांधी से जवाब मांगते सवाल

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निवर्तमान सरसंघचालक श्री कुपहल्ली सीतारमैया सुदर्शन द्वारा कांग्रेस और संप्रग की राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी पर की गई टिप्पणियों से राजनीतिक बवाल खड़ा हो गया है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। जब भी किसी व्यक्ति ने श्रीमति सोनिया गांधी के खिलाफ कुछ भी कहा है, तो कांग्रेस और उसमें पलने-बढ़ने वाले नेताओं ने हंगामा मचा दिया है। ऐसा प्रतीत होने लगा है कि श्रीमति सोनिया गांधी के खिलाफ बोलना, उनसे स्पष्टीकरण की अपेक्षा करना अपराध हो गया है।
क्या इस देश की जनता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि देश के 118 करोड़ लोगों का भाग्य जिन लोगों के हाथों में हैं, वे आखिर हैं कौन? जब भारत सरकार इस देश में रहने वाले लोगों की मंशा और कार्यकलापों की जांच करने के लिए पूरे देश की सुरक्षा एंजेसिंयो को झौंक सकती है, तो उस विदेशी मूल की महिला की जांच करने में किसी को क्यों और क्या आपत्ति हो सकती है, जिसके कारण देश की जनता को मन संदेह की भावना उपज रही है।
सभी जानते हैं कि श्रीमति इंदिरा गांधी ने बडे़ ही अनमने मन से राजीव और श्रीमति सोनिया गांधी के विवाह पर अपनी सहमति दी थी। एक बार इस घर की बहू बन जाने के बाद स्वयं श्रीमति इंदिरा गांधी और भारत की जनता ने श्रीमति सोनिया गांधी को सहज हृदय से स्वीकार किया था। मन में उलझन तो तब पैदा होती है, जब भारतवासी तो श्रीमति सोनिया गांधी में अपना विश्वास प्रकट करते हैं, परन्तु जब जब मौका आता है श्रीमति सोनिया गांधी की भारत के प्रति निष्ठा आश्चर्यजनक रूप से संदिग्ध दिखती है। 1968 में राजीव गांधी से विवाह होने के बाद से ही श्रीमति सोनिया गांधी का जीवन रहस्यमय ही बना हुआ है। कुछ प्रश्न ऐसे हैं, जिनका जवाब हर भारतीय के सशंकित मन को संतुष्ट कर सकता है, इसलिए श्रीमती सोनिया गाँधी को चाहिए की वे कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष होने के नाते ना सही लेकिन इस देश की बहू होने के नाते ही इन प्रश्नों का जवाब जरुर दे।
पहला यह कि क्या कारण था जिसके चलते १९७७ के आम चुनावों श्रीमति इंदिरा गांधी की पराजय के बाद श्रीमति सोनिया गांधी ने अपने बच्चों राहुल और प्रियंका के साथ इटली के दूतावास में शरण ली? क्या उन्हैं सत्ता परिवर्तन होने के साथ ही गांधी परिवार के वर्चस्व की समाप्ति का भय सता रहा था, या वे भारत को अपने और अपने बच्चों के लिये सुरक्षित जगह नहीं मानती थीं?
दूसरा प्रश्न भी महत्वपूर्ण है कि श्रीमति सोनिया गांधी किस वंश की ‘” शाखा” हैं। उनका असली नाम सोनिया माइनो है या एंतोनियो माइनो? उनका जन्म लुसियाना में हुआ या ओरबासानो में? क्योंकि श्रीमति सोनिया गांधी के जन्म प्रमाणपत्र में उनका नाम एंतोनियो माइनो है, एंतोनियो माइनो कैसे सोनिया माइनो बनी, इसके पीछे की क्या कहानी है, इसको जानने का हक तो सामान्य भारतीय को है ही।
तीसरा प्रश्न यह भी है कि क्या आर्थिक तंगी से परेशान होकर श्रीमति सोनिया गांधी ‘नन’ बनना चाहती थी, और उसके लिए उन्होंने घर छोड़ा? लेकिन उनके पिता स्टीफनो माइनो ने उन्हैं कैम्ब्रिज भेज दिया, जहां वे रोजगार करने के साथ ही अपनी पढ़ाई भी कर रही थी?
चौथा प्रश्न भारत सरकार के मंत्री और स्व0 राजीव गांधी के मित्र रहे श्री सुब्रमण्यम स्वामी आज भी पूछ रहे हैं कि कैम्ब्रिज में उन्होंने शिक्षा कहां से और किस स्तर तक प्राप्त की? क्योंकि जो दावा श्रीमति सोनिया गांधी ने लोकसभा को दिये अपने जीवन वृत्त में किया है, उसको तो कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने झुठला दिया है। लोग ये जानना चाहते हैं कि श्रीमति सोनिया गांधी और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में से कौन झूठा है? यदि श्रीमति सोनिया गांधी ने झूठ बोला तो क्यों और यदि कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय झूठ बोल रहा है तो क्यों?
पांचवा महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि भारत ही नहीं विश्व के प्रतिष्ठित राजनीतिक परिवारों में से एक नेहरू-इंदिरा परिवार की बहु बनने के बाद श्रीमति सोनिया गांधी ने किन मजबूरियों के चलते इंश्यारेंस एंजेंट का काम लिया और अपने विजिटिंग कार्ड में भारत के प्रधानमंत्री के आवास को अपना निवास स्थान बताया?
छठा प्रश्न तो स्विट्जरलैंड की प्रतिष्ठित पत्रिका द्वारा किये गए खुलासे पर आधारित है। स्विट्जर इलैस्टेट नामक इस पत्रिका ने 11 नवम्बर1991 के अंक में खुलासा किया कि राजीव गांधी और उनकी पत्नी श्रीमति सोनिया गांधी के स्विस बैंक के गुप्त खाते में दो अरब (2 बिलियन) डालर थे। यह खाता उनकी नाबालिग संतानों के नाम से था, इतना पैसा इस परिवार के कहां से आया? इस समाचार का आज तक खंडन क्यों नहीं किया गया? क्या भारत के नागरिकों को यह भी जानने का अधिकार नहीं है कि श्रीमति सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के इस देश के अलावा विदेशों में भी बैंक एकाउन्ट हैं या नहीं?
संातवा प्रश्न,हार्वर्ड विश्वविद्यालय के शिक्षा शास्त्री येवजेनिया अल्बास ने रशियन गुप्तचर एंजेंसी के जी बी द्वारा किये गए पत्र व्यवहार को देखकर बताया है कि विक्टर चेब्रीकोव ने लिखित में ‘भुगतान यू एस डॉलर में लेने के लिए राजीव गांधी के परिवारिक सदस्यों सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी और पावलो माईनो (श्रीमति सोनिया गांधी की मां) को ‘‘अधिकृत’’ किया।’ क्या भारत की जनता इस प्रश्न का जवाब नहीं जानना चाहेगी कि श्री विक्टर चैब्रीकोव कौन हैं? और इन्होंने किस कारण से और कितनी राशी का भुगतान दिसम्बर 1985 में इस परिवार को किया?
आठवां प्रश्न श्रीमति सोनिया गांधी के ओतोवियो क्वात्रोच्ची के आपसी संबंधों पर आधारित है। श्रीमति सोनिया गांधी के ओतोवियो क्वात्रोच्ची से क्या संबंध हैं? एक हथियार सौदागरों के दलाल से भारतीय बहू के संबंधों के खुलासे के लिये भारत परिवार आज भी इंतजार कर रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इस ‘दलाल’ के जरिये विदेशी गुप्तचर एंजेसिंया भारत की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा का भेद ले रही हों।
नवां प्रश्न श्रीमति सोनिया गांधी द्वारा की जा रही व्यापारिक गतिविधियों पर केन्द्रित है । श्रीमति सोनिया गांधी को इस आरोप पर भी अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिये कि इतना पैसा और विदेशों में एकाउंट होने के बावजूद वे किन वस्तुओं के आयात निर्यात का व्यापार करती थीं? क्या यह समस्त राशी उसी व्यापर के कारण अर्जित की गई है? और यह भी स्पष्ट किया जाना चाहिये कि श्रीमति सोनिया गांधी के अलावा क्या उनकी बहनें भी इस व्यापार में उनकी साझीदार हैं।
दसवें और अंतिम प्रश्न के रूप में यह जानना भी अत्यावश्यक है कि श्रीमति सोनिया गांधी द्वारा इटेलियन पासपोर्ट लौटा देने की स्थिति में क्या उनकी इटली की नागरिकता स्वतः ही समाप्त हो जाती है? इसी प्रकार क्या राहुल और प्रियंका गांधी के पास आज भी इटेलियन पासपोर्ट है? और वे अपनी विदेश यात्राऐं किस देश के पासपोर्ट पर करते हैं?
ये सिर्फ 10 सहज और छोटे से प्रश्न हैं, जिनका जवाब 118 करोड़ भारतीयों को संतुष्ट कर सकता है। जरूरत इस बात की है कि श्रीमति सोनिया गांधी पर उठने वाले हर सवाल पर हल्ला मचाने की बजाय कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता इन प्रश्नों के जवाब दें।
सवाल यह नहीं है कि श्रीमति सोनिया गांधी का विरोध करके ही कांग्रेस विरोधी दलों की राजनीति चलती है, सवाल इससे भी अधिक गहरा और गंभीर है कि जिस व्यक्ति के अतीत के बारे में हम पुख्ता रूप से नहीं जानते, जिस व्यक्ति ने अपने आपसी संबंधों को देश के 118 करोड़ लोगों की भावनाओं से ज्यादा अहमियत दी, जिसने भारत की जनता को तो क्या अपनी ही पार्टी को सच्चाई बताने की कोशिश नहीं की, जो श्रीमति सोनिया एक ऐसी महिला को अपना प्रमुख सिपहसालार बनाती है, जिससे ना केवल राजीव गांधी सख्त नफरत करते थे अपितु उस महिला ने श्रीमति इंदिरा गांधी तक को डायन कह डाला, और अति तो तब हो गई जब श्रीमति सोनिया गांधी ने राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए दक्षिण भारत के उस राजनीतिक दल का भी समर्थन ले लिया जिसने राजीव गांधी के हत्यारों को बचाने का प्रयास किया था।
तो जब इतने सारे भ्रम और प्रश्न सामने हों तो कांग्रेस के नेताओं और उसके कार्यकर्ताओं को बजाय हो हल्ला मचाकर प्रश्न करने वालों को चुप कराने के इन प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत करना चाहिये, जिससे देश राजनीतिक रूप से सशक्त और समर्थशाली नेताओं के हाथों में सुरक्षित रहे।

Wednesday, November 3, 2010

भ्रष्टाचरण और कांग्रेस

जरा याद कीजिये 2009 का आम चुनाव। कांग्रेस ने स्लम डॉग मिलेनियर फिल्म के गीत ‘जय हो’ को चुनावों हेतु अपने लिए ब्रांड गीत बनाया था, और उसी गीत को गांव गांव बजाकर वह सत्ता के सिंहासन पर जा बैठी। सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली यू पी ए ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में एक बार फिर सत्ता संभाल ली। सत्ता संभालने के दो साल बाद ही यू पी ए सरकार की नीतियों के कारण आत्महत्या कर रहे किसानों पर बनी फिल्म ‘पीपली लाइव’ के जरिये एक और गीत सामने आया, ‘सखी, सैंया तो बहुत ही कमात हैं, मंहगाई डायन खाए जात है’। ये दोनों गीत ही कांग्रेसी शासन की कथनी और करनी का अन्तर स्पष्ट कर देते हैं।
हाल ही में मुम्बई में सामने आए आवास घोटाले ने एक बार फिर साबित किया है कि कांग्रेस को सत्ता भ्रष्टाचार का नंगा खेल करने के लिए ही चाहिये। यह बार बार याद रखे जाने की जरूरत है कि जैसे भारत के स्वाधीनता आंदोलन नेतृत्व का श्रेय महात्मा गांधी को दिया जाता है, ठीक उसी प्रकार आजाद भारत में सत्ता के सर्वाधिक दुरूपयोग और उसे भ्रष्ट करने के लिये जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गाँधी का नेतृत्व जिम्मेदार है।
दरअसल, कांग्रेस ने एक राजनीतिक दल और सरकार के रूप में अपने अधिकार का इस कदर दुरूपयोग किया कि सिर्फ कांग्रेस ही नहीं भारत की संपूर्ण राजनीति भ्रष्टाचार का केन्द्र बन गई । यह पूछा ही जाना चाहिये कि लोहिया और जयप्रकाश के शिष्य लालू यादव और मुलायम सिंह ने राजनीति में भ्रष्टाचार करना कहां से सीखा? यह भी जानने की जरूरत है कि अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग और मुसलमानों का पक्का वोट बैंक होने के बाद भी हर चुनाव में बसपा पर टिकिट बेचने के आरोप क्यों लगते हैं? ऐसा कौन होगा जिसने राजनीति में
शुचिता लाने के लिए कृत संकल्प राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण को एक लाख रूपये की रिश्वत लेते हुए टेलीविजन पर नहीं देखा? और वामपंथियों ने तो भ्रष्ट आचरण की ऐसी आंधी चलाई जो केवल रूपये पैसे तक सीमित नहीं रही, अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए उसने कई बेगुनाहों को अपनी राजनीतिक बर्बरता का निशाना भी बनाया।
जब गंगा का उद्गम ही गंदा और अपवित्र हो तो वह पवित्रता कहां से प्रदान करेगी? आजादी के बाद कांग्रेस और विशेषकर नेहरू परिवार ने सत्ता का उपभोग किया है, यह ही वह समय था जब भारत के सम्मान और स्वाभिमान की नींव रखी जानी थी, इस दौर की ही सरकारों पर यह जिम्मेदारी थी कि वे भारत के नागरिक को स्वच्छ, ईमानदार और संवेदनशील प्रशासन उपलब्ध कराते, जिसमें आम आदमी अपनी गरिमा को महसूस कर पाता। लेकिन कांग्रेस के नेताओं ने ऐसा रास्ता चुनना ज्यादा बेहतर समझा, जिसमें उनके वंश और पीढ़ियों के राजनीतिक साम्राज्यशाही की रक्षा तो होती थी, परन्तु आम भारतीय पांच साल में एक बार वोट देने वाला ऐसा गरीब और बेबस मतदाता बन गया जो हर बार अपनी तकदीर संवारने के लिए वोट देता था, और उसे हर बार लुभावने नारों और विज्ञापनों के जरिये छल लिया जाता था।
दरअसल, नेहरू की कांग्रेस ने भ्रष्टाचार की शुरूआत 1948 में ही कर दी थी, जब कश्मीर में पाकिस्तान की धुसपैठ का जवाब देने के लिए सेना के लिए खरीदी जाने वाली जीपों में ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त कृष्णा मेनन की भूमिका सामने आई। इन्हीं कृष्णा मेनन की भ्रष्ट भूमिका को जानते बूझते हुए नेहरू सरकार ने ना केवल उनके खिलाफ चल रही जांच को बंद कर दिया, अपितु कृष्णा मेनन के चुप रहने की कीमत पण्ड़ित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हैं मंत्रीमंडल में शामिल कर के चुकाई।
भारतमाता की सुरक्षा के लिए खरीदी गई बोफोर्स तोप से लेकर कारगिल में शहीद हुए सैनिक अधिकारियों के लिए मुंबई में आदर्श हाउसिंग सोसायटी द्वारा बनाए गए फ्लैट्स घोटाले ने यह भी साबित कर दिया है कि कांग्रेस के लिए सैनिकों की कीमत एक चोकीदार से ज्यादा नहीं है? कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गाँधी से लेकर प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह तक ने आज तक कांग्रेस पार्टी द्वारा किए गए अपराधों के लिए देश से क्षमा नहीं मांगी है, अपितु वे इन मामलों में लीपा पोती करने की ही कोशिश कर रहे हैं।
आश्चर्य की बात तो यह है कि कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को हिन्दुस्तान के अंदर दो हिंन्दुस्तान तो नजर आते हैं। एक गरीब हिन्दुस्तान और दूसरा अमीर हिन्दुस्तान, और वे गरीब हिन्दुस्तानियों को कांग्रेस से जोड़ने के लिए तरह तरह के स्वांग रचते हुए भी दिखाई देते हैं। लेकिन वे कभी आजाद भारत में हुए भ्रष्टाचार पर श्वेत पत्र प्रकाशित करने की बात नहीं कहते। वे ये भी नहीं कहते कि विदेशों में जमा काला धन भारत में लाने के लिए उनके पास क्या कार्ययोजना है? उनकी बातें तो बड़ी बड़ी और साफ सुथरी हैं लेकिन क्या उनके पास इस बात का जवाब है कि बोफोर्स तोप दलाल क्वात्रोची को किस राजनीतिक परिवार के संरक्षण के कारण भारत का कानून सजा नहीं दे पाया है। दरअसल, वे ऐसे राजकुमार की तरह बर्ताव कर रहे हैं जो अपने साम्राज्य को बनाए रखने के लिए तरह तरह के स्वांग रच रहा है। राहुल गांधी को चाहिये कि वे राजनीति से कुछ समय निकाल कर अपनी युवा टीम के साथ नॉक आउट फिल्म देखें, जिसमें विदेशों में जमा भारतीय मुद्रा को वापस लाने की फिल्मी कोशिश की गई है।
क्या कोई भी व्यक्ति जो राजनीतिक मामलों की जरा सी भी समझ रखता है, वो इस बात पर सहमत हो सकता है कि पिछले महिने संपन्न हुए राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में हुए भ्रष्टाचार में कांग्रेसी नेता शामिल नहीं थे? भारतीय ओलम्पिक संघ के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी ने खुद यह माना है कि दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमति शीला दीक्षित की पूरे आयोजन की तैयारी में “बड़ी भूमिका” थी। ध्यान देने योग्य बात यह है कि नेहरू-गांधी परिवार के अति विश्वस्त लोगों के नाम ही भ्रष्टाचार करने में प्रमुख हैं। प्रश्न यह है कि भोपाल गैस त्रासदी के ‘खलनायक’ मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह आज कहां हैं? तेल के बदले अनाज घोटाले के मुख्य किरदार पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह आज कितने लोगों को याद हैं? और छत्तीसगढ़ के अजीत जोगी तक राजनीतिक परिदृष्य से गायब हैं।कांग्रेस का यह तंत्र भ्रष्ट तरीके से अर्जित किये गए धन को वापस वसूलने की बजाय उस व्यक्ति को हटा देने में ज्यादा विश्वास रखता है, जिसका भ्रष्टाचार उजागर हो गया है।

कॉमनवेल्थ खेल हों या नरेगा कार्यक्रम कांग्रेस सत्ता किसी भी काम की शुचिता को बनाये रखने में विफल रही है। तो जरूरत इस बात की है कि कांग्रेस के कार्यकर्ता ही उनके नेताओं द्वारा संरक्षित, पोषित और पल्लवित भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ खड़े हों और भारत के जन को गरिमापूर्ण जीवन प्रदान करने के लिए अपने ‘गिलहरी’ के समान ही सही योगदान को देकर अपने राजनीतिक जीवन को सार्थक करें, क्योंकि यदि गंगोत्री पावन और पवित्र होगी तो वह गंगा अपनी निर्मलता से पूरे देश को भ्रष्टाचार के संत्रास से मुक्त करा देगी।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी
(लेखक सेंटर फॉर मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं)

Sunday, October 24, 2010

इन्द्रेश कुमार का सच

क्या कोई भी निरपेक्ष और निष्पक्ष व्यक्ति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आतंकवादी संगठन कह सकता है? क्या आतंकवादी संगठन वन्देमातरम् का गान करते हैं? या वे प्रतिदिन अपनी प्रार्थनाओं में ‘परम वैभव नैतुमेतत् स्वराष्ट्रं ’ का उद्घोष करते हैं? क्या समाज में रहने वाले करोड़ों स्वयंसेवकों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हित चिन्तकों को देखकर मन से आतंकवादी होने का भय उपजता है? क्या जो लोग निकर पहनकर और हाथ में डंडा लेकर शाखा जाते हैं, वे अपने ‘संघस्थान’ पर देश में सांप्रदायिक हमलों की रणनीति बनाते हैं? इन प्रश्नों का जवाब ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चाल, चरित्र और चेहरे को स्पष्ट कर देता है।
दरअसल, जो लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को बदनाम करने की साजिश रच रहे हैं , वे कभी भी संघ की विचार और व्यवहार धारा को समझ ही नहीं पाये। वे कभी यह नहीं जान पाये कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जनमानस में इतना आदर क्यों प्राप्त है? वे तो सिर्फ इतना समझ पाये हैं कि स्वतंत्र भारत में यह ही एकमात्र ऐसा संगठित संगठन है, जिसके एक आह्वान पर लाखों लोग अपना काम धाम छोड़कर चले आते हैं और यह ही वह ताकत है जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विरोधियों को डराती है। क्या किसी ने एक बार भी सोचा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विरोध कौन लोग करते हैं? उनका राजनीतिक सोच और द्रष्टिकोण किन आधारों और विश्वसों पर आश्रित है? आखिर क्यों राजनीतिक दल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समझने की बजाय अपने मतदाताओं को भरमाते रहते हैं?
दरअसल, जब जब कांग्रेस की सत्ता होती है, तो उसके निशाने पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही रहता है, क्योंकी पूरी की पूरी राजनीतिक व्यवस्था यह मानती है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्राण देश भक्ति में ही बसते हैं और यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नामक संगठन से देश भक्ति की प्राण वायु को निकाल दिया जाए तो यह संगठन अपने आप ही निस्तेज और प्राणहीन हो जाएगा और एक बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्राणहीन कर दिया तो फिर देश के हितों और भविष्य के साथ खिलवाड़ करने वाले राजनेताओं पर कोई लगाम ही नहीं रह जाएगी। इसीलिए हर मौके बेमौके पर संघ को बदनाम कर सकने वाली हर कोशिश करना राजनेता अपना पुनीत कर्तव्य समझते हैं।
अब जरा बात हो जाए अजमेर दरगाह ब्लास्ट के मामले की जांच की। याद कीजिए बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव। तब भी केन्द्र में यही सरकार थी और रेल मंत्री थे श्रीमान लालू प्रसाद यादव। उन्होंने मुस्लिम मतों को अपनी तरफ करने के लिए गोधरा कांड के लिए एक अलग से जांच आयोग गठित किया था, उस जांच आयोग की रिपोर्ट भी आ गई , परन्तु कार्यवाही आज तक नहीं हुई । लालू यादव और सोनिया गांधी अब गोधरा के बारे में बात ही नहीं करते। इसी प्रकार इस बार भी बिहार विधानसभा चुनाव का मौका है, जहां पर कांग्रेस के राजकुमार राहुल गांधी की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है, वरिष्ठ कांग्रेसी नेता उनको अगला प्रधानमंत्री घोषित करने से नहीं थक रहे हैं और जनमत जनता दल और भाजपा के पक्ष में जा रहा है, ऐसे में एक ही उपाय है, मुस्लिमों को पक्ष में करने के लिए संघ की बदनामी और इस बार बारी है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक इन्द्रेश कुमार की ।
अजमेर दरगाह ब्लास्ट मामले में सत्ता की आंख देखकर कार्य करने वाली सरकारी व्यवस्था एक बार फिर कठघरे में है। इस मामले में आरोपियों को पकड़ा जा चुका है, उनके खिलाफ चालान पेश हो रहे हैं और उन आरोपियों की पृष्ठभूमी के आधार पर जिस तरह से सरकारी अमला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को बदनाम करने की साजिश रच रहा है, उससे सरकारी कार्य तंत्र की ही संदेह के घेरे में है।
सरकारी आरोप है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल के सदस्य इन्द्रेश कुमार अजमेर दरगाह ब्लास्ट के षड़यंत्र में सहभागी हैं, इसके लिए उन्होंने जयपुर स्थित गुजराती समाज की धर्मशाला में एक भाषण भी दिया। आश्चर्य इस बात का है कि छोटे से छोटा अपराधी भी अपनी योजनाओं के बारे में किसी से कुछ नहीं कहता, लेकिन ए टी एस कहती है कि अजमेर दरगाह ब्लास्ट को अंजाम देने के लिए इन्द्रेश कुमार ने भाषण दिया।
इस पूरी कहानी में एक बार भी सरकारी पक्ष ने इन्द्रेश कुमार से बात नहीं की, उन्होंने अपने भाषण में क्या कहा, वह नहीं बताया और वह भाषण किस संस्था के कार्यक्रम में दिया गया और उसमें कौन कौन लोग उपस्थित थे, यह भी ए टी एस को नहीं पता? तो फिर यह क्यों नहीं माना जाए कि सरकारी एंजेसियां सत्ता में बैठे लोगों की आंख देख कर अपने कर्तव्यों को पूरा कर रही हैं।
ध्यान देने लायक तथ्य यह भी है कि जिस इन्द्रेश कुमार ने इतना बड़ा षड़यंत्र रचा, उसके खिलाफ पूरी सरकार ने अभियोग पत्र भी प्रस्तुत करने की मेहनत तक नहीं की, और ना ही इतने ‘खतरनाक मास्टर माइंड’ को 2007 से लेकर चालान पेश किये जाने तक गिरफ्तार कर पूछताछ की गई । यह तो सारा मामला ही राजनीतिक अव्यवस्था का घटिया नमूना है।
जांच तो इस बात की भी की जानी चाहिये कि जिस व्यक्ति के खिलाफ अभियोग पत्र भी नहीं बन पाया, उस व्यक्ति और संस्था को मीडिया के जरिये किसने और क्यों बदनाम करने की साजिश रची ? पूरी दुनिया में तब तक किसी को अपराधी नहीं माना जाता जब तक अदालत में उस व्यक्ति का दोष सिद्ध नहीं हो जाए, लेकिन इस मामले में तो अदालत में चालान पेश करने से पूर्व ही इन्द्रेश कुमार का नाम कांग्रेस के नेता ले रहे थे।
यह भी महत्त्वपूर्ण है कि अजमेर दरगाह ब्लास्ट का चालान पेश होने से पूर्व सोनिया गाँधी के विश्वस्त महासचिव दिग्विजय सिंह अकारण और असंदर्भित बयान जारी कर कहते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पाकिस्तानी खुफिया एंजेसी आई एस आई से मदद मिलती है। उसके बाद सोनिया पुत्र राहुल गांधी अपने ‘विवेक’ से मत व्यक्त करते हैं कि उनके लिए संघ और सिमी में कोई अन्तर नहीं है। उसके बाद सोनिया गांधी के ही एक कृपा पात्र अशोक गहलोत की सरकारी आंख देखकर अजमेर दरगाह ब्लास्ट में संघ के वरिष्ठ प्रचारक इन्द्रेश कुमार का चार्जशीट में नामोल्लेख किया जाता है । क्या इन सभी बातों का एक ही क्रम में होना महज एक संयोग है या पूरी कांग्रेस बिहार में होने वाले चुनावों को ध्यान में रखकर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के खिलाफ माहौल बना रही है, जिससे मुसलमानों को अपने पक्ष में किया जा सके।
दरअसल, यह समझे जाने की जरूरत है कि जब जब कांग्रेसी सत्ता ने सरकारी तंत्र के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित करने, बदनाम करने की कोशिश की है, तब तब यह संगठन और ताकतवर होकर सामने आया है। समझना कांग्रेस को है कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ताकत प्रदान करना चाहती है या देशभक्तों के इस सैलाब को रोकना चाहती है, यदि कांग्रेस के नेताओं की दिलचस्पी वास्तव में संघ को समाप्त करने में है, तो उन्हैं वह राष्ट्रवादी स्वरूप अंगीकार करना होगा जो तिलक, मालवीय, गांधी, सरदार पटेल, गोखल और सुभाष चंद्र बोस के मनों में बसती थी।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी
लेखक सेण्टर फॉर मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं।

Saturday, September 18, 2010

क्यों जरूरी है राम मंदिर ?

रामजन्मभूमि पर फैसला आने को है, पर यह अंतिम फैसला नहीं है। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के जफरयाब जिलानी ने पिछले दिनों एक बयान में कहा भी है कि अंतिम अदालत का अंतिम फैसला ही मान्य होगा। यानि जो भी पक्ष माननीय उच्च न्यायालय के फैसले से सहमत नहीं हो, वह अगली अदालत का द्वार खटखटा सकता है। अंतिम अदालत का फैसला भी मनमाफिक नहीं आया तो संसद के पास यह अधिकार सुरक्षित है कि वह कानून द्वारा अंतिम अदालत के अंतिम फैसले को पलट सके। ऐसा शाहबानो केस में हमने देखा ही है।
विश्व हिन्दू परिषद की मांग है कि रामजन्मभूमि - बाबरी मस्जिद विवाद का निर्णय अदालतें नहीं कर सकती, इसका समाधान लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर संसद में ही संभव है, जहां पर जनता द्वारा जनता के लिए चुने हुए प्रतिनिधि ही बैठते हैं। परन्तु क्या वे प्रतिनिधि जो आलू - प्याज के भाव, गरीबी, बेरोजगारी, झौंपड़ पटटी के वोट बैंक और विकास के नाम पर वोट मांगकर संसद तक पहुंचते हैं, वे आजाद भारत के इस सर्वाधिक संवेदनशील मुद्दे पर गंभीर हैं ?
6 दिसम्बर 1992 को क्रुद्ध कारसेवकों ने बाबरी ढ़ांचे को ध्वस्त कर दिया। उसके बाद से 17 साल बीत गये, लेकिन इन ‘प्रतिनिधियों’ ने इस विवाद का समाधान करने की दिशा में एक कदम की भी प्रगति नहीं की। सरकार ने मामला अदालत को सौंप दिया और निश्चिन्त हो गई । आजाद भारत में न्यायपालिका का जितना क्षरण कार्यपालिका और विधायिका ने किया है, उसके कारण न्यायपालिका पर जनता का विश्वास ही समाप्त हो चला है। ना तो न्यायपालिका और ना ही जनता, को यह विश्वास है कि न्यायपालिका जिस भी नतीजे पर पहुंचेगी ‘सत्ता’ उस निर्णय को मान ही लेगी और भारत में कानून के शासन को स्थापित किया जा सकेगा। दरअसल, आज तक सरकारों ने किसी भी मामले को अदालत में सौंपकर ‘विवाद को टालो और राज करो’ की नीति को ही विवादों से बचने का नुस्खा अपना रखा है, यही स्वतंत्र भारत के राजनेताओं का आजमाया हुआ पुराना पैंतरा है।
सत्ता, चाहे किसी भी दल की ही क्यों ना हो, वह सिर्फ ‘सरकार’ होती है और पांच साल में बदल जाने वाली सत्ता को स्थिर बनाये रखने के लिए हर ‘सरकार’ किसी भी नये नारे और नीति पर आश्रित होती है। चाहे वह 25 जून 1975 को लागू किया गया आपातकाल हो या ‘इंडिया शाइनिंग’। दोनों का ही हश्र एक सा ही है, जनता ने दोनों को ही बाहर का रास्ता दिखा दिया। दुर्भाग्य से वर्तमान केन्द्र सरकार भी अपने पूर्ववर्ती सरकारों का ही अनुसरण कर रही है। जो हश्र उनका हुआ, उससे अलग इस सरकार का भी परिणाम नहीं रहने वाला है। लेकिन जब तक सत्ता हाथ में है, ये ‘सरकार’ कोई भी निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है क्योंकि संसद में सहमति के लिए खड़े होने वाले आधे से ज्यादा हाथ इसी सरकार के साथ हैं, और जब हाथ से ही काम चलता है तो विवेक की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।
अयोध्या में राम जन्म स्थान पर मंदिर बनाये जाने के विरोधियों के कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न हैं कि आजादी मिलने के 62 बरस बाद भी देश की बहुसंख्य जनता को विकास की बजाय मंदिर - मस्जिद के मसले में क्यों उलझना चाहिये ? जिस देश में एक तिहाई से अधिक आबादी गरीबी, भुखमरी, और बेरोजगारी से त्रस्त हो क्या वहां के जनसंगठनों और नागरिकों को यह शोभा देता है कि वे भारत के विकास के मार्ग को अवरूद्ध कर मंदिर - मस्जिद के लिए आपसी सौहार्द को बिगाडें और विश्व में तेजी से उभरती हुई आर्थिक ताकत को अपने ही हाथों से कमजोर करें ? निश्चित ही यह प्रश्न छोटे नहीं है, परन्तु जो लोग इस तरह के जुमले कसकर अयोध्या में राम जन्मस्थान पर मंदिर बनाये जाने का विरोध कर रहे हैं, उन्हैं भी एक छोटे से प्रश्न का जवाब देना ही चाहिये कि बिना स्वाभिमान और आत्मगौरव जागृति के यह आर्थिक तरक्की कितने दिन टिक पायेगी ? क्या हम ऐसा भारत चाहते हैं जो आक्रांताओं के स्मारकों को संरक्षण प्रदान करे और भारत को स्वतंत्र देखने की चाह में हंसते हंसते फांसी पर झूल जाने वाले भगतसिंह को आतंकवादी कहे।
जो लोग अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का विरोध कर रहे हैं, उन्हैं इस बात को तो समझना ही होगा कि भारत में राम के लिए मंदिर बनाने वाले लोगों और जगहों की कोई कमी नहीं है, लेकिन यह बात देश की रीति नीति और अंतरात्मा की है। प्रश्न यह भी है कि हम हमारी संस्कृति, सभ्यता और विरासत को नष्ट करने वाले हमलावरों को नकारने की हिम्मत रखते हैं या नहीं ? क्यों नहीं सारे राजनेता मिलकर इस सच्चाई को सामने रखते कि मात्र 300 मुगलों ने तोप और गाय को आगे रखकर भारत की साँस्कृतिक चेतना को कुचलने का अपराध किया था, आज जो पाकिस्तान और बंगलादेश सहित भारत में मुस्लिम दिखाई पड़ते हैं वे इन हमलावरों के आने से पहले इसी आर्यावर्त की महान संतानों के वंशज हैं। क्यों नहीं पूरे देश को यह बताया जाता कि जब जिन्ना के सामने घुटने टेकते हुए हमने भारत के विभाजन को स्वीकार किया था और मुस्लिमों के लिए पाकिस्तान का गठन किया था, तो भारत में रहने वाले मुस्लिमों ने पंडों, भाटों, रावों और अन्य वंशलेखकों के पास जाकर अपनी जडें खोजने और अपने गौत्र निकालने के प्रयास शुरू कर दिये थे। आखिर पूरे देश को यह क्यों नहीं बताया जाता कि भारत में उस समय रहने वाला एक एक मुसलमान चीख चीख कर कह रहा था कि हम हिन्दुओं की संतान हैं और हमारी उपासना पद्धति इस्लामिक है।
पूरे विश्व में भारत ही तो है जो सभी उपासना पद्धतियों को फलने फूलने का अवसर प्रदान करता है। जहां शैव, शाक्त, जैन, बुद्ध, सिख, पारसी समुदाय के लोग अपनी विभिन्न उपासना पद्धतियों के साथ इस देश में स्वाभिमान के साथ रह सकते हैं तो फिर वे कौन लोग थे जिन्होंने इस उपासना पद्धति को मजहब में बदलने का अपराध किया ? आखिर देश को यह जानने का अधिकार तो है कि 1947 में मृत हो चुकी मुस्लिम लीग इस देश में किन राजनेताओं की सत्ता पिपासा के कारण पुन: उठ खड़ी हुई ?
देश को यह भी जानना है कि किन हालातों में लोग ‘मेहतर’ बनाए गए। जिन शासकों ने इस देश के नागरिकों से मैला उठवाया, हजारों हजार नागरिकों का कत्लेआम कर दिया, अपनी हवस को पूरा करने के लिए हरम बनवाए, क्या वे हमलावर नहीं थे। क्या भारत में उन हमलावरों के नाम पर दिल्ली में बड़ी बड़ी सड़के नहीं हैं ? भारत में जिलों के नाम उन पर नहीं हैं ? उन हमलावरों की बर्बरता का सजीव चित्रण करती हुई मस्जिदें भारत की सांझी विरासत कैसे हो सकती हैं ? प्रश्न यह है क्या कोई शासक अपनी ही प्रजा पर इस तरह के जुल्म करता है? इस तरह के जुल्म तो हमलावर शासक करते हैं, जिनकी इच्छा होती है कि आम जनता उनकी बर्बता से घबराकर उनकी शरणागति स्वीकार कर ले और अपनी जान बचाने के लिए उन्हीं के पंथ और मजहब को स्वीकार कर ले।
तो क्या यह माना जाए कि आजाद भारत की सरकारें अपनी संतानों को यह बताना चाहती हैं कि जिन हमलावरों ने हमारी अस्मिता के साथ खिलवाड़ किया, हमारे पूर्वजों को लूटा, उनकी हत्याएं कर दीं, हम उन हमलावरों को हमारी विरासत के नाम पर उदारमना होकर स्वीकार करें। हमारी संताने उन हमलावरों को कैसे संरक्षण दे सकती हैं ? राजनेताओं की जरूरत वोट है, और उसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं, हमलावरों को पूज भी सकते हैं। लेकिन यह तय भारत की जनता को करना है कि वह इन हमलावरों को अपनी ‘विरासत’ माने या नहीं। बात सिर्फ अयोध्या में राम मंदिर बनाने की जिद की नहीं है, बात यह है कि हम आजादी के बाद से लेकर आज तक अपने देश की दशा और दिशा तय नहीं कर पाये। तो जो काम हमारे राजनेता नहीं कर पाये उसे ‘रामजी’ को ही पूरा करना पडेगा।

Thursday, August 26, 2010

भगवा आंतकवाद के बहाने ......

भारत में भगवा आतंकवाद है, यह खोज भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने नहीं अपितु श्री पी. चिदम्बरम ने की है और यह भी कि श्री चिदंबरम सिर्फ वकील ही नहीं हैं अपितु भारत सरकार के गृह मंत्री भी हैं, और सबसे बड़ी बात यह है कि श्री चिदंबरम ने यह खुलासा किसी प्रश्न के जवाब में नहीं किया, अपितु देश भर के राज्य पुलिस प्रमुखों के दो दिवसीय सम्मेलन में किया है। भगवा आंतकवाद पर तो चर्चा तो बाद में करेंगें लेकिन यह जानना जरूरी है कि क्या भारत के गृहमंत्री पुलिस अधिकारियों के गले यह बात उतारने की कोशिश कर रहे हैं कि अब पुलिस अधिकारी ‘भगवा’ बात करने वाले लोगों को आतंकवादी के रूप में देखने की कोशिश शुरू कर दें। इसी से जुड़ा हुआ दूसरा प्रश्न है कि भगवा आतंकवाद को अस्तित्व में लाकर वे अपना कौनसा राजनीतिक ऐजेंडा पूरा कर रहे हैं या दूसरे शब्दों में कहा जाए तो किस को खुश कर रहे हैं?
प्रश्न यह उठता है कि भारत में भगवा आतंकवाद की बात क्यों और कहां से शुरू हुई ? दरअसल इस प्रश्न की जड़ में एक मूल प्रश्न है कि ‘हर आतंकवादी मुसलमान ही क्यों होता है?’ जब देश की जनता ने संसद पर और मुंबई में हुए आतंकी हमले में अफजल गुरू और कसाब का नाम आने के बाद और अदालत द्वारा उन्हैं दोषी पाए जाने के बाद यह प्रश्न पूछना शुरू किया तो इस प्रश्न का जवाब देश के मुस्लिम नेताओं और मुस्लिम समाज ने देने की बजाय, देश की सद्भावना बनाए रखने वाले सर्वस्पर्शी दल कांग्रेस की गठबंधन सरकार ने देना उचित समझा। मालेगांव विस्फोट में साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित और दया शंकर पाण्डेय का नाम आने के बाद तो अंधे के हाथ बटेर लग गई । पूरी सरकार और उसके सहयोगी दल यह सिद्ध करने में लग गये कि ‘आतंकवादी सिर्फ मुसलमान ही नहीं होता, हिन्दू भी होता है।’ अपनी इस दलील को पुष्ट करने के लिए सरकार ने दो और प्रकरणों को जनता के सामने रखा इनमें एक गोवा में सनातन संस्था से जुडे लोगों का कारनामा है और दूसरा दिनेश गुप्ता का। कहा जा रहा है कि भगवा मानसिकता के लोग देश की आंतरिक सुरक्षा और सद्भावना को बिगाड़ने में लगे हुए हैं।
श्री चिदंबरम से एक छोटा सा सवाल है कि वे जिस भगवा आतंकवाद की बात कर रहे हैं उसका मतलब क्या है? क्या वे भारत में सनातन काल से चली आ रही संत परम्परा को आतंकवाद से जोड़ रहे हैं? या फिर वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुडे संगठनों और कार्यकर्त्ताओं को आतंकवादी कह रहे हैं ? या फिर वे ये कहना चाहते हैं कि भारत में मंदिर जाने वाले हर व्यिक्त से भारत की एकता और अखंड़ता को खतरा है ? या उनको लगता है कि देश में पनप रहे मुस्लिम आतंकवाद, नक्सली आतंकवाद का जवाब देने की बजाय ‘भगवा आतंकवाद’ की बात को स्थापित करना उनके तथा उनकी सर्वस्पर्शी पार्टी के राजनीतिक हित में है। श्री चिंदम्बरम शायद यह भूल गये हैं कि स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी लगभग हर सभा में यह पूछते नजर आते थे कि आज की सभा में कितने मुस्लिम भाई आए हैं? वे कहते थे कि भारत की आजादी की जितनी जरूरत हिन्दुओं को है, उतनी ही यह मुस्लिमों के लिए भी आवश्यक है, अत: हर हिन्दू भाई का कर्तव्य है कि वह अपने साथ एक मुस्लिम भाई को अवश्य ही लेकर आए। लेकिन कितने मुसलमान महात्मा गांधी के साथ आए? उस समय भी मुसलमान महात्मा गांधी की अपील को इसलिए अनसुना कर देते थे, क्योंकि उनका यह विश्वास था कि कांग्रेस हिन्दू नेताओं की पार्टी है, उसमें मुसलमानों के लिए कोई स्थान नहीं है। देश का बंटवारा कर देने के बाद भी क्या मुसलमानों का यह चरित्र बदला ? क्या आज भी मुसलमान कांग्रेस को अपना मानते हैं? वे अपने फायदे और नुकसान का आकलन करते हैं। गुजरात में वे कांग्रेस के साथ हैं तो बिहार में नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान और उत्तर प्रदेश में कभी मुलायम सिंह के साथ तो कभी मायावती के साथ। इसी प्रकार हर राज्य में उनकी अपनी गणित है। इस गणित को महात्मा गांधी और नेहरू जैसे कद्दावर नेता नहीं समझ पाये तो वर्तमान कांग्रेसी नेतृत्व तो उनके मुकाबले काफी बौना है।
दरअसल, वोट की राजनीति और तुष्टीकरण की नीति के चलते केंद्र सरकार इतना नीचे गिर चुकी है कि इस देश को ‘मां’ मानने वाले और किसी व्यक्ति की बजाय भगवा ध्वज को ही आराध्य मानने वाले करोड़ों भारतीयों को भगवा आतंकवादी कहने में गर्व महसूस कर रही है। यदि केंद्र सरकार के पास ‘भगवा आतंकवाद’ के इतने पुख्ता सबूत हैं तो वह इन भगवा संस्थाओं पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाती है? क्यों साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित और दयाशकर पाण्डेय जैसे ‘आतंकवादियों’ के खिलाफ सक्रयिता दिखाकर अदालत से उन्हैं फांसी की सजा दिलवाती? और पाकिस्तान के साथ बातचीत में यह स्वीकार करती कि अफजल गुरू और कसाब पाकिस्तान के इशारे पर नहीं अपितु ‘भगवाधारियों’ के इशारे पर भारत की अस्मिता के साथ खिलवाड़ करने आए थे।
हमारी सबसे बड़ी समस्या ही यह है कि हमारा शासक वर्ग अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहता है। चाहे उसे विदेशी आंक्राताओं के सम्मान में कालीन बिछाने का काम मिले, या फिर अपनी ही मातृभूमि के साथ गद्दारी करनी पडे, उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता अपनी सत्ता को बचाए रखना है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत का क्षैत्र इरान (आर्यन ), अफगानिस्तान (उपगणस्थान)से लेकर इंडोनेसिया तक था, आज यदि हमको भारत कश्मीर से कन्याकुमारी तक ही दिखता है, तो इसका कारण यहां के नागरिक नहीं अपितु शासक हैं, जिनके बाजुओं में विद्रोहियों से निपटने की ताकत ही नहीं थी और ना ही वह दृष्टि थी जिसके आधार पर वे दुश्मन और उसकी नीयत को पहचान पाते। आज भी कश्मीर में भाडे के टट्टू हमारे जवानों पर पत्थर फैंक कर आजाद कश्मीर के सपने को हकीकत में बदलने की कसमें खा रहे हैं और हमारी ही कृपा पर पलने वाला नेपाल जैसा पिद्दी सा देश हमारे ही खिलाफ चीन और पाकिस्तान का साथ दे रहा है।
श्री चिदम्बरम उन्हीं शासकों की श्रृंखला की निचली पायदान का मोहरा भर हैं, जिनसे दुश्मनों के हौंसले तो पस्त किये नहीं जाते, लेकिन दिल्ली के वातानुकूलित भवनों में बैठकर ‘भगवा आतंकवाद’ की थ्यौरी को पुष्ट करने के लिए उनके पास पर्याप्त समय है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि जिन्हैं आप आतंकवादी साबित करने की धमकी दे रहे हैं, उन्हैं इस देश पर मर मिटने के लिए किसी शासक के प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं होती। ये वे करोड़ों लोग हैं, जो सिर्फ एक ही आशा के साथ ‘भगवा ध्वज’ को प्रणाम करते हैं कि एक सुबह ऐसी होगी, जब भारत विश्व का सिरमौर होगा, भारत में रहने वाले हर नागरिक के लिए दोनों समय का भोजन, पहनने को वस्त्र और अर्जन करने के लिए ज्ञान होगा। हर किसान को काम होगा। भारत में रहने वाले वनवासियों को नक्सली और सरकारी गोलियों का निशाना नहीं बनाया जाएगा। उनकी खूबसूरत दुनियां में वे सभी सुविधाएं उपलब्ध होंगी, जो श्री चिदंबरम को दिल्ली में उपलब्ध हैं।

Tuesday, April 20, 2010

तीली

बना ले राह को रोशन
तो फिर मंजिल अंधेरी है
फकत बस एक तीली है
दुबारा जल नहीं सकती