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Saturday, May 26, 2012

देश को सरदार की नहीं असरदार प्रधानमंत्री की जरूरत है


देश की जनता त्राही त्राही कर रही है, कोई तारणहार भी नहीं मिल रहा है। जिन लोगों को चुनकर देश  के मतदाताओं ने अपने भविष्य को उनके हाथों में सौंपा था, वे ही उनकी दुर्दशा  का कारण बन गये हैं। यह इस देश के नागरिकों का दुर्भाग्य नही तो और क्या है कि जिस व्यक्ति को अर्थशास्त्री होने के नाते से विश्व भर में जाना जाता है और जो भारत में इस कथित नवउदारवादी नीतियों का प्रणेता है, वह व्यक्ति और उसकी आर्थिक नीतियां ही देश के लिये श्रापित दंश  बन गये हैं।
सरदार मनमोहन सिंह कोहली और उनकी सरकार देश के लिये अभिशाप साबित हो रहे हैं, एक ऐसा अभिशाप जिसे लोकतंत्र और विभाजित विपक्ष से जीवन का वरदान मिला है। इस अभिशाप को आम आदमी के आंसू, किसानों, मध्यमवर्ग और मजदूरों की आत्महत्याएं भी दूर नहीं कर पा रही हैं। तो क्या यह वह समय है, जब आम आदमी को विद्रोही हो जाना चाहिये और सत्ता प्रतिष्ठान पर बैठे इन राजनेताओं और राजनीतिक दलों के प्रति असहयोग का रास्ता अपनाना चाहिये।  
भारत के विभाजन के बाद यह पहला अवसर है जब देश  में निराशा का वातावरण है, देश और देश  के नागरिकों के हितों की रक्षा करने वालों की निष्ठाओ और प्रतिबद्धताओं पर विश्वास का संकट है। सरकार स्वयं को बचाने के लिये हर किसी को ना केवल चोर और लुटेरा साबित करने में जुटी है अपितु भारत के नागरिकों को पंथों और जातीयता के आधार पर बांटने का अक्षम्य अपराध भी कर रही है और इसके लिए सत्ता की असीम ताकत का भरपूर दुरुपयोग कर रही है।
जिस सरकार को हम इसलिये चुनते हैं कि वह हमारे नागरिक अधिकारों की रक्षा करेगी। देश  के युवाओं के लिये रोजगार के अवसर पैदा और प्रदान करेगी। देश  में वह माहौल पैदा करेगी कि किसान और मजदूर अपनी मेहनत से देश  का और अपना भाग्य बदल सकें। एक ऐसी अर्थ व्यवस्था की स्थापना करेगी, जो ना केवल बढ़ती महंगाई पर अंकुश लगाये, अपितु देश में व्यापार करने वाले घरानों की मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति पर भी लगाम लगाये।  एक ऐसी व्यवस्था जो सामाजिक समरसता और सामंजस्य के साथ देश को एकता के सूत्र में बांध सके।
प्रश्न यह है कि क्या वर्तमान सरकार इनमें से एक भी कसौटी पर खरी उतरी है ? क्या भारत सरकार का एक भी मंत्री ऐसा है जिसकी आय में कमी हुई हो ? या एक भी औद्यौगिक घराना ऐसा है जिसको लाभ की बजाय घाटा हुआ हो ? अथवा  एक भी विदेशी निवेशक भारत में अपना निवेश यहां के मजदूरों और समाज की वजह से वापस भागा है ? तो फिर क्या कारण है कि भारत का युवा निराश  है, किसान और मजदूर आत्महत्या कर रहे हैं ? देश  भर की गृहणियां आंखों में आंसू लिये अपनी रसोई चलाने के लिये बाध्य हैं।
1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद बनी सरकारों ने देश  के नागरिकों से ऐसे विकसित  भारत का वायदा तो  भारत के नागरिकों से नहीं किया था, कि महज 20 सालों में देश की एक तिहाई से भी अधिक आबादी को दो समय के भोजन के लिये सरकारी योजनाएं का दास बना देगें। देश  में शिक्षा, चिकित्सा और कानून व्यवस्था भ्रष्टाचार के दोषियों को सजा दिलाने के  प्रति सरकारी बेबसी और बेरुखी देश को खरोच खरोंच कर घायल कर देगी, और सरकार अपने उदारवादी नीतियों के कारण आँखों पर पट्टी  बांध लेगी ।
दरअसल, यह सरकार भारत के नागरिकों के प्रति अपने उत्तरदायित्व को पूरा करने में विफल रही है। सरकार ऐसे लोगों के प्रभाव में काम कर रही है, जिनके लिये आम आदमी की गरिमा, सज्जनता और जिंदगी की कोई कीमत नहीं, उनके लिये पैसा ही भगवान हो गया है। तभी तो देश  में बाजारवाद हावी हो गया है और जब बाजारवाद हावी होगा तो आई पी एल, कामनवैल्थ, टू जी स्पैक्ट्रम, खाद्यान्न, टेट्रा ट्रक, कोयला और मैट्रिक्स जैसे घोटालों के रूपों में देश  को खोखला कर दिया जाएगा।
देश  को इससे पहले इतना कमजोर और कर्महीनता से ग्रस्त प्रधानमंत्री कभी नहीं मिला। स्वार्थी और अवसरवादी राजनेताओं की इस यू पी ए सरकार ने भारत को ना केवल दोनों हाथों से लूटा है, अपितु देश  के आम नागरिकों के मनोबल को तोड़ने का अक्षम्य अपराध भी किया है।
2009 के आम चुनावों में आम आदमी के साथ का नारा देकर सत्ता में लौटा ये गठबंधन महंगाई को घटाने की बजाय नियंत्रित करने में भी विफल रहा है। विदेशो  में जमा कालाधन इन अवसरवादियों की विशुद्ध कमाई है।  जिन लोगों ने भ्रष्ट तरीकों से अकूत संपदा अर्जित की है, वे इस जमघट के सेनापति हैं, और उस पर सरदार मनमोहन सिंह कोहली को ईमानदार राजनेता कहा जाता है, यह  भारत का अपमान है।
दरअसल, मनमोहन सिंह कोहली लाचार, हताश  और कमजोर व्यक्ति हैं। जो एक आज्ञाकारी और बेजान पुतले की तरह भारत का नेतृत्व कर रहे हैं। क्या हमें  एक पुतले से देश  की अस्मिता और नागरिकों की गरिमा को बचाए रखने की उम्मीद रखनी चाहिये? क्या देश  का एक भी व्यक्ति सरदार मनमोहन सिंह कोहली की सरकार को ईमानदार और आम आदमी के साथ के लिये प्रतिबद्ध कह सकता है? देश  को सरदार की नहीं असरदार प्रधानमंत्री की जरूरत है, सुन रहे हैं आप……..

सुरेन्द्र चतुर्वेदी
(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं )

Thursday, May 17, 2012


क्यों जरुरी है भाजपा

क्या भारतीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी अप्रासंगिक हो गई है? क्या भारतीय जनता पार्टी को समाप्त हो जाना चाहिये ? क्या इससे किसी को भी या देश को कोई फायदा होगा? क्या भाजपा के अलावा अन्य कोई राजनीतिक दल ऐसा है जो राजनीति में सिर्फ सत्ता के लिये नहीं अपितु इसलिये है कि वह देश और देश के नागरिकों की दशा और दिशा बदलना चाहता है? क्या कांग्रेस, जनतादल, समाजवादी पार्टी, बसपा, तृणमूल कांग्रेस, अन्नाद्रमुक, द्रमुक जैसे व्यकितवादी और परिवादवादी राजनीतिक दलों में होने वाली उठापटक से जनता के मन में व्यापक असंतोष और गहन निराशा फैलती है? क्या इनमें से एक भी राजनीतिक दल ऐसा है, जिनके राजनेताओं की राजनीति से इतर कोई पहचान है?
आखिर क्या कारण है कि भारत का आम नागरिक, मीडिया और राजनीतिक विश्लेषक भारतीय जनता पार्टी को सिर्फ एक राजनीतिक दल ही नहीं मानते अपितु यह भी मानते हैं कि वह संगठित, अनुशासित और सुदृड़ रहे तो वह ना केवल भारत की राजसत्ता की निरंकुषता पर अंकुश लगा सकती है बल्कि एक ऐसे भारत का निर्माण करने में भी सक्षम है जिसका सपना स्वामी विवेकानन्द, योगी श्रीअरविन्द, लाल-बाल-पाल, महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बसु जैसे स्वातंत्र्य वीरों ने देखा था।
प्रश्न यह भी है कि सत्ताधारी यू पी ए की चेयरपर्सन और विभाजित भारत की सत्ता भोगने वाली कथित महारानी भारत की आत्मा को समझती हैं क्या? या भारत की आत्मा का प्रतिनिधित्व प्रणव मुखर्जी, लाल कृष्ण आडवाणी, शरद यादव, नरेन्द्र मोदी, गोविन्दाचार्य, नीतीश कुमार, प्रकाश सिंह बादल, जयललिता और कुछ हद तक मायावती, करूणानिधि, लालू, मुलायम और शरद पवार जैसे राजनेता करते हैं? यह भी विचारणीय है कि क्या कारण है कि इतने सारे प्रभावशाली राजनेताओं के होते हुए भारत की दशा और दिशा को तय करने का अधिकार उस व्यक्ति के पास केन्द्रित है जिसके लिए राजसत्ता ही धर्म है, और वह राजसत्ता में बने रहने के लिये देश को बाजार बना देने के लिए आतुर है और राजनीति को धंधा। और यह भी कि पूरा देश उसे एक ईमानदार नेता के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। 
इसका जवाब एक ही है कि वर्तमान समय में ऐसे राष्ट्रीय नेताओं का अभाव है, जिन्होंने देश की आत्मा और जन के साथ साक्षात्कार किया है, वे भारत की नब्ज को पकड़ नहीं पा रहे हैं और अपने विचारों और व्यक्तित्व को विराट और विशाल करने की अपेक्षा अपने अस्तित्व की रक्षा में सन्नद्ध हैं, इसीलिये वे अपनी छोटे छोटे स्वार्थों के कारण ना केवल ओछी हरकतें कर रहे हैं अपितु देश की जनता के बीच निराशा भी पैदा करने के अपराधी बन गये हैं और यह तब और भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण हो जाता है जब यही बात संपूर्ण विकल्प का स्वप्न लेकर राजनीति में आनेवाली भारतीय जनता पार्टी के लिये भी कही जाती है। 
क्या इसे देश का दुर्भाग्य नहीं कहा जाना चाहिये कि जिस भारतीय जनता पार्टी की आत्मा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा अनुप्राणित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में बसती है, जिसके लिये भारत के विभाजन के बाद लाखों कार्यकर्ताओं ने एकनिष्ठ होकर तप किया है, जिसकी विशिष्टता बरबस सबका ध्यान खींचती है, उसकी तुलना कांग्रेस, बसपा, सपा जैसे अवसरवादी और सत्ता पिपासु दलों के साथ की जाने लगी है। 
सोचने की जरूरत है कि आखिर क्यों सबसे अलग “चाल चरित्र और चेहरे” वाली भाजपा सब जैसी ही राजनीतिक पार्टी बन गई है। आखिर क्यों भाजपा का अनुशासन राज्य और क्षेत्रिय स्तर के नेताओं के सामने बौना होता दिखाई दे रहा है? क्या अनुशासन की अनदेखी ही एक मात्र कारण नहीं है कि भाजपा जैसे राजनीतिक दल में क्षत्रपों की दादागिरी, भ्रष्टाचार और यौनाकर्षण के मामले ना केवल सामने आ रहे हैं अपितु भाजपा अपने राजनीतिक कार्यकर्ताओं को इस विद्रूपता और संक्रमण से बचा नहीं पा रही है। इसका दूरगामी असर भाजपा में आनेवाली नर्इ कोंपलों पर भी पड़ रहा है।
जरूरत इस बात की है कि कम से कम भाजपा के नीति नियंता और राजनेता अन्य दलों व भाजपा के बुनियादी अंतर को समझें । यह नहीं भूला जाना चाहिये कि भाजपा का जन्म राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ दोहरी सदस्यता के सवाल पर हुआ था और यही उसकी पहचान भी बनी, जिसे नकारने की कोशिश ही भाजपा के आंतरिक संघर्ष के मूल में है। यह सही है कि समाज का बहुत बड़ा वर्ग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति उपजाए गए पूर्वाग्रह से ग्रस्त है और इस कारण भाजपा को अन्य प्रभावी राजनीतिक व्यकितत्वों को साथ में लेना पड़ता है, लेकिन जो लोग मूलत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भाजपा में नहीं आये हैं वे भी इस बात को जानते और मानते हैं कि भाजपा अन्य दलों से अलग है, तो जरूरत इस बात की है भाजपा के कार्यकर्ता और राजनेता बाहरी व्यक्तियों की नीतियों और व्यक्तित्वों के प्रभाव में आने की बजाय उनमें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अलख को प्रज्जवलित करें, क्योंकि भाजपा का जीवित रहना ना केवल देश के सामान्य नागरिकों के आत्मसम्मान और गरिमा के लिये आवश्यक है अपितु यह राष्ट्र की पुकार भी है।
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं)