राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधी सभा दूसरी बार जयपुर में हो रही है। इससे पहले 2004 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सभी प्रतिनिधि जयपुर आए थे। प्रतिनिधी सभा, सर्वोच्च निर्णायक मंडल है, इसी सभा पर देश और दुनिया के सभी राजनीतिक और सामाजिक विश्लेषकों की निगाह रहती है, क्योंकि यहीं से इस संगठन की आगे की कार्य व्यवस्था और दिशा तय होती है।
इस सभा में संघ परिवार के सभी संगठनों के जिम्मेदार अधिकारी देश भर से आए प्रतिनिधियों के सामने विगत वर्ष के सांगठानिक कार्यों का लेखा जोखा तो रखते ही हैं, साथ ही समय काल परिस्थितियों के अनुरूप देश के हालातों से भी उन्हैं अवगत कराते हैं। संघ का शीर्ष नेतृत्व, राष्ट्र के प्रति समर्पित हजारों कार्यकर्ताओं के माध्यम से इस सभा में देश की आत्मा के साथ साक्षात्कार करता है। हर साल होने वाला यह उपक्रम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को नई उर्जा प्रदान करता है और आसन्न चुनौतियों के प्रति सावधान भी करता ही है।
यह सही है कि 1925 में विजयादशमी के दिन जन्मा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज समाज के सभी वर्गों और क्षेत्रों को प्रभावित करता है। छात्र, मजदूर, किसान, शिक्षा, वनवासी, धर्म, सेवा और राजनीति जैसे कई क्षेत्रों में कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सिद्धांतों को स्थापित किया है और अपनी विशिष्ट पहचान भी बनाई है। फिर क्या कारण है कि इस देश और समाज के लगभग सभी क्षेत्रों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पुरातनपंथी और अव्यवहारिक सोच वाला संगठन माना जाने लगा है ?
यह सच्चाई भी माननी ही चाहिये कि पूरी दुनिया और भारत में अपनी सशक्त उपस्थिति के बावजूद देश का बड़ा वर्ग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अप्रासंगिक बताकर हाशिए पर धकेलने की पूरी कोशिश करता रहा है, और कर रहा है। कभी गांधीजी की हत्या के नाम पर शुरू हुई यह कोशिश अब भगवा आतंकवाद तक आ पहुंची है। चुनौती कई तरफ से है, एक तरफ तो देश की युवा पीढ़ी को बरगलाया जा रहा है कि संघ का प्रखर राष्ट्रवाद, आतंकवाद का ही दूसरा रूप है, तो दूसरी तरफ सत्ता को बनाए रखने के लिए संघ के विरोध को ही जनसमूहों की ताकत में बदल दिया गया है। सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि संघ का विरोध आज सत्ता में बने रहने की गारंटी है, और इसी कारण घोरतम विरोधी भी एकजुट हो जाते हैं, और देश के प्रति किया गया अपराध भी इन्हैं सत्ताच्युत करने के लिए पर्याप्त नहीं होता।
यह कैसे संभव है कि राष्ट्रवाद के प्रबल समर्थक इतने बडे़ वर्ग के होते हुए भी सोनिया गांधी जैसी महिला भारत की नीति नियंता बन जाती है ? यह समझ में आने लायक बात नहीं है कि भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी कांग्रेस देश में शासन कर पा रही है ? यह भी महत्वपूर्ण प्रश्न है कि किस तरह सरकारें पूरे भारत की प्रतिनिधि ना होकर कुछ वर्गों और समाजों की पैरोकार बन गई हैं, जो भारत को पराजित करने के लिए आतंक और धर्मातंरण जैसे पापकारी कार्य करने में लगे हुए हैं, और आश्चर्य तो यह है कि सत्ता में बैठे लोग उनको संरक्षित कर रहे हैं।
अपना फर्ज निभाने के कारण मार दिये गए उत्तरप्रदेश के पुलिस अधिकारी जिया उल हक के परिवार को न्याय दिलाने के नाम पर धन की वर्षा हो रही है, और उसमें सभी राजनीतिक पार्टियों में होड़ लगी हुई है, परन्तु देश की सीमा पर शहीद हो जाने वाले हेमराज का सिर ले जाने के बाद भी निजी यात्रा पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री भारत आने का दुस्साहस कर पाता है, और उनको सिर्फ इसीलिए शाही भोज दिया जा रहा है, जिससे कि एक समुदाय खुश हो सके।
यह आश्चर्य नही तो और क्या है कि संघ जैसे इतने बडे़ सामाजिक, सांस्कृतिक और वैचारिक अधिष्ठान की उपस्थिति के बावजूद देश में विदेशी मिशनरियां वनवासियों और वंचितों के बीच धर्मांतरण कर रही हैं। आज की परिस्थितियों में सरकारें, संघ के विरोध को अपनी ताकत मानने लगी हैं, और अपनी इस ताकत को बढ़ाने के लिए वे किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं।
यह भी समझना ही होगा कि संघ से इस देश ही नहीं दुनिया को भी बहुत आशाएं हैं. पूरे विश्व को सयुंक्त राष्ट्र संघ द्वारा पालित और पोषित विकास की अवधारणा पर चलाने का कुत्सित प्रयास विदेशी शक्तियां कर रही हैं. उनकी ये नीतियां भारत के मन और मानस के लिए जहर हैं, इसको स्वीकार करने से ना केवल भारत तिनका तिनका कर बंट रहा है, अपितु हमारी हजारों वर्षा पुरानी सामाजिक व्यवस्था भी तहस नहस हो रही है , और हम ऐसे मूकदृष्टा साबित हो रहे हैं, जो प्रबल बाहुबली और आत्मस्वाभिमान से युक्त होने के बावजूद अपने सामर्थ्य का प्रकटीकरण नहीं कर पा रहे है।
तो जरूरत इस बात की है चारों तरफ से बढ़ रहे दबावों और भीतरी अन्तर्विरोधों के बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रतिनिधि सभा इस बात को स्वीकार करे कि भारत का अवचेतन मन पीडित है, और उसकी समस्या हमारा अपना समाज, उसकी मनोवृत्ति और शासन है। इदं न ममः राष्टाय स्वाहाः, का आहवान तभी ज्यादा सार्थक हो पाएगा, जब शासन पर उन कार्यकर्ताओं की प्रतिष्ठा होगी, जिनके रोम रोम से भारत के मन और मानस की अभिव्यक्ति होती हो। इसी के साथ हमें उन युगानुकूल परिवर्तनों के लिए भी तैयारी करनी पडे़गी, जिसको विश्व एक मूलभूत बुनियादी परिवर्तनकारी एंजेडे के रूप में स्वीकार कर सके, क्योंकि जिस व्यवस्था ने भारत को हजारों सालों से अक्षुण रखा है, वही व्यवस्था विश्व के लिए कल्याणकारी हो सकती है।
यही तो भारत दर्शन है, जिसे इंडिया नहीं समझ पा रहा है। हमारी दृष्टि भारत को बचाने के लिए सम्यक कार्ययोजना बनाने पर होने की आवश्यकता है ना कि रक्षात्मक कार्ययोजना के लिए। यही सही समय है, जब भारत विरोधी सिर उठाने लगें और अपनी ताकत का इस्तेमाल भारत के मन और मानस को बदलने और कुचलने के लिए कर रहे हों, तब हमें ऐसी भीषण गर्जना करनी ही होगी, जिससे भारतविरोधियों के चेहरे भय से पीले पड जाएं और विश्व में पूरब की आध्यात्मिक और अलौकिक ज्योति का संचार हो सके।