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Wednesday, August 24, 2011

सिंहासन खाली करो ……

अन्ना हजारे के अनशन पर बैठने के साथ ही सरकार की तरफ से यह प्रश्न दागा जाने लगा है कि आखिर अन्ना चाहते क्या है ? क्या एक जनलोकपाल विधेयक देश में से भ्रष्टाचार को समाप्त कर देगा? सरकारी पक्ष का यह प्रश्न बेतुका नहीं है, हां, यह जरूर है कि यह समय इस प्रश्न को पूछने का नहीं है। यह समय उन व्यवस्थाओं को धार देने का है, जिनके कारण अन्ना हजारे को अपने समर्थकों के साथ सड़कों पर आकर देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था को चुनौती देनी पड़ रही है।
आजादी की 64वीं वर्षगांठ के अगले ही दिन गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के अनशन पर बैठने के साथ ही देश भर में एकसाथ प्रगटी नई चेतना और उर्जा से पूरी दुनिया अचंभित है। जो लोग पहले अन्ना हजारे और उनकी सिविल सोसायटी को महज कुछ पढे लिखे बुद्धिविलासी लोगों का ड्रामा करार दे रहे थे, वे भारत के इस नये चेहरे को देखकर जड़ हो गये हैं। राजनेताओं को यह समझ में नहीं आ रहा है कि अन्ना हजारे की इस जनलोकपालवादी मुहीम का वो समर्थन करें अथवा विरोध। राजनीतिक दलों की इसी असमंजसता का लाभ उठाते हुए सत्ताधारी दल को अचानक ही लोकतंत्र का अपहरण होता दिखाई देने लगा है। दूसरी तरफ देश की जनता इस उम्मीद के साथ भारत माता की जय और वंदेमातरम~ का जयघोष कर रही है कि उसके जयघोष से यह भ्रष्ट व्यवस्था बदल जायेगी और भारत विकास की राह पर दौड़ने लगेगा।
यह एक रोचक तथ्य है कि जब से भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता के बीच सुगबुगाहट शुरू हुई है और देश ही नहीं अपितु विदेशो में भी ईमानदारी और शालीनता का पर्याय बने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में एक के बाद दूसरे भ्रष्टाचार के मामले सामने आने लगे हैं तथा इन मामलों में प्रधानमंत्री और उनके मंत्रियों की भूमिका पर अंगुली उठने लगी है, और देश ने पूर्ण प्रखरता से भ्रष्टाचार के विरोध में अपना मत प्रकट किया, जगह जगह जनआंदोलन की आधारभूमि तैयार होने लगी है, लेकिन इतना सब होने के बाद भी एक भी जगह से यह समाचार सुनने को नहीं मिला कि सरकारी या निजी क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारियों, अधिकारियों अथवा व्यापारियों ने अपने कार्यकलापों में ईमानदारी और शुचिता को महत्व दिया हो, या भ्रष्टाचारियों के हौंसले पस्त हुए हों। ना हीं यह समाचार सुनने में आया कि बच्चों ने अपने माता पिता से यह प्रश्न पूछा हो कि आपकी कमाई पूरी तरह ईमानदारी की है ना ?
प्रश्न यह है कि 1947 के बाद से ही संविधान में समय समय पर कानून जुड़ते और संशोधित होते रहे हैं, परंतु क्या इन कानूनों के अस्तित्व में आने के बाद भी देश के सामान्य नागरिकों की किस्मत और उनके हालातों में कोई बदलाव आया है ? क्या अन्ना हजारे की सिविल सोसायटी द्वारा प्रस्तुत जनलोकपाल विधेयक देश के तंत्र में व्यापक बदलाव की रूपरेखा प्रस्तुत करता है ? यदि नहीं, तो फिर जनलोकपाल हो या अन्य कोई विधेयक, वो भारत के आम आदमी की तकदीर और तस्वीर को कैसे बदलेगा?
यह बात समझे जाने की जरूरत है कि देश के प्रधानमंत्री और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को निगरानी में लाने के लिये किसी विधेयक से ज्यादा उस नैतिक बल की आवश्यकता है, जो समाज की आंतरिक चेतना से उपजता है। यह कैसे संभव है कि भ्रष्ट तरीके से सत्ता में आने वाले लोगों से हम शुचिता की उम्मीद रखें ? जो समाज देश की बजाय क्षेत्रियता,जाति, पंथ, धर्म और भाषाई आधार पर अपना मतदान करता है, वो एक सबल राष्ट्र का सपना भी कैसे देख सकता है?
यह सही है कि सत्ता में बैठे लोगों ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये व्यवस्था को ना केवल दूषित किया है, अपितु उसको विषाक्त कर दिया है कि भारत के नागरिकों को उस पर से विश्वास उठ गया है, यही कारण है कि जिन राजनीतिक दलों पर भारत की जनता को समर्थ और सबल शासन देने की जिम्मेदारी है, जनता का उन्हीं पर विश्वास नहीं है। अन्ना हजारे के पीछे देश भर के करोड़ों लोगों का आना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि सभी राजनीतिक दल देश की जनता का विश्वास खो चुके हैं।
यह समझने की जरूरत है कि लोकतंत्र में किसी भी समस्या का निदान तो राजनीतिक दलों की आपसी समझ और प्रशासनिक क्षमता से ही हो सकता है, अन्ना हजारे या बाबा रामदेव जैसे सामाजिक कार्यकर्ता किसी राष्ट्र और उसके जनमानस की पीड़ा को तो आवाज दे सकते हैं, परंतु उनके पास उस पीड़ा से मुक्ति दिलाने का ना तो अधिकार है और ना ही उपाय।
यह गौरतलब है कि अन्ना हजारे का आंदोलन भ्रष्ट राजनेताओं, अधिकारियों और उद्योगपतियों के खिलाफ तीव्र और कठोर न्यायिक कार्यवाही की बात नहीं करता है, और ना ही केंद्र सरकार को विदेशो में जमा काला धन के खाताधारकों को सार्वजनिक करने की मांग ही करता है, सिविल सोसायटी इस बात की पैरवी नहीं करती कि केंद्र सरकार एक ऐसा कानून लेकर आये जो जनता को निश्चित दिनों के भीतर सरकारी आवश्यकताओ की पूर्ति की गांरटी देती हो, वो यह भी नहीं कहती कि देश भर की सरकारें लोकायुक्त और सूचना आयुक्तों के प्रति ना केवल जवाबदेह हों अपितु उनकी बातों और निर्णयों को गंभीरता के साथ भी लें।
प्रश्न सिर्फ देश पर एक और विधेयक लाद देने का नहीं है, प्रश्न यह है कि जिस देश में भ्रष्टाचार को रोकने के लिए विभाग बने हुए हैं, उनके लिए अलग से अदालतें बनीं हुई हैं, सूचना आयुक्त, सतर्कता आयुक्त और लोकायुक्त जैसे संवैधानिक व्यवस्थाओं को पाला पोसा जा रहा है, उस देश के सरकारी और निजी तंत्र को भ्रष्टाचार की घुन कैसे खोखला कर सकती है? इसका मतलब सिर्फ इतना है कि राजसत्ता अपने कर्तव्य का पालन करने में लगातार विफल साबित हो रही है। दूसरे अर्थ में यह भी कहा जा सकता है कि देश की जनता ने जिन उद्देश्यों के लिए लोकतंत्र को स्वीकार किया था, भारत पर शासन करने वाले सभी राजनीतिक दल अपने उसी कर्तव्य की पूर्ति करने में विफल रहे हैं । तो जिन लोगों को शासन प्रणाली को बिना भेदभाव और पूरी ईमानदारी से संचालित करना नहीं आता, वे लोग व्यक्तिगत जीवन में भले ही ईमानदारी के पुतले हों परन्तु वे एक देश के खेवनहार नहीं हो सकते। अत: उनके लिये यह ही उचित है कि वे सिंहासन खाली करें, जिससे कि जनता एक सक्षम और समर्थ भारतीय के हाथों में राज सौंप सके।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी
(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं)

Saturday, June 25, 2011

भयभीत कांग्रेस और लोकपाल


बाबा रामदेव के हरिद्वार लौट जाने और अन्ना हजारे के दिल्ली आ जाने के बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता के संघर्ष को एक नया सेनापति मिल गया है। इस बार केन्द्र सरकार के सामने दुनियादारी से दूर रहने वाला बाबा रामदेव नहीं है। अबकी बार उसका मुकाबला अपने आप को दांव पर लगाने वाले अन्ना हजारे, अरविन्द केजरीवाल, श्रीमती किरण बेदी जैसे हजारों लोगो से है, जो ना केवल राजनेताओं के असली चरित्र से परिचित हैं, अपितु यह भी जानते हैं कि सरकार मीडिया और सत्ता का उपयोग कर किस तरह से समर्थकों और भारत की आम जनता को भ्रमित करने में कुशल हैं। इससे यह भी साबित होता है कि सरकार कितना भी दमन कर ले] एक के बाद एक लोग आंदोलन का नेतृत्व करने के लिये सामने आते रहेंगें।

यह भी आश्चर्यजनक है कि केन्द्र सरकार इस बात के लिये तो राजी है कि ग्रामसेवक से लेकर संयुक्त सचिव तक के कर्मचारी और अधिकारी लोकपाल के दायरे में आयें, लेकिन वह उन लोगों को लोकपाल से दूर रखना चाहती है, जो नीति निर्माण के लिए उत्तरदायी हैं और वे ही भ्रष्टाचार के पोषक होने के लिए भी जिम्मेदार हैं। सरकार का यह रूख भारत के आम आदमी को ना केवल भ्रष्ट साबित कर रहा है, अपितु यह भी कह रहा है कि भारत का आम आदमी भ्रष्ट है। भारत के नागरिकों को इससे बड़ा अपमान किसी सरकार ने नहीं किया होगा।

इसी क्रम में आजकल सरकारी पक्ष एक नई कहानी को हवा दे रहा है, कहा जा रहा है कि भारत में भ्रष्टाचार मुद्दा ही नहीं है, और भारत का समाज तो भ्रष्टाचार को हमेशा से ही स्वीकार करता रहा है और भारत में निवास करने वाले संत महात्माओं के मठ और पीठ अवैध कमाई को संरक्षित करने का ठिकाना बन गये हैं। इसलिये केन्द्र सरकार का यह प्राथमिक कर्तव्य है कि वह भ्रष्टाचार का ठिकाना बने इन केन्द्रों को ढ़ूंढ़ ढ़ूंढ़ कर नष्ट कर दे। ये सब बातें देश के सत्ताधारी राजनेताओं की तरफ से तब से कही जाने लगी है, जब से बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार को घेरा और विगत ४-५ जून की रात्रि को केन्द्र सरकार ने बाबा रामदेव और उनके समर्थकों को मार मार कर नई दिल्ली के रामलीला मैदान से भगा दिया और उस पर यह भी कि प्रधानमंत्री कहते हैं कि इसके अलावा और कोई चारा ही नहीं बचा था।

ध्यान देने लायक बात है कि ये बातें आम जनता की नहीं हैं, ये बातें उन लोगों की तरफ से आईं हैं, जिनसे देश की जनता ने उनकी अकूत कमाई का राज पूछा है और इतना कुछ सहने के बाद भी देश की जनता यह जानना चाहती है कि गोरे अंग्रेजों से सत्ता प्राप्त कर लेने के बाद जिन भी नेताओं ने सत्ता का उपभोग किया है, वो भारत के नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं दिला पाने में क्यों विफल रहे ? कैसे भारत का सर्वांगीण विकास कुछ मुट्ठी भर लोगों के विकास में कैद हो गया ? कैसे कुछ भ्रष्ट लोगों ने सत्ता प्रतिष्ठान पर कब्जा करके अपनी तिजोरियों का ना केवल भर लिया अपितु उसे विदेशी बैंकों में भी जमा करा दिया। तो फिर यह क्यों नहीं यह माना जाय कि देश आज भी आजादी को तरस रहा है, और अबकि बार संग्राम गोरों से नहीं सत्ता को धंधा बना चुके लालची राजनेताओं से है।

आज जब भारत का प्रत्येक राजनीतिक दल सत्ता का उपभोग कर चुका है, भारत की आम जनता इस मुद्दे पर राजनितिक समर्थन को लेकर असमंजस में है, आम जनता का विश्वास भी राजनीतिक दलों से उठ गया है, इसीलिये सामाजिक कार्यकर्त्ता और देश के प्रमुख संत चाहे वो बाबा रामदेव हो या श्री श्री रविशंकर अपने समर्थकों के साथ सड़कों पर भ्रष्टाचार के दानव से मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे हैं। परन्तु राजसत्ता, भारत के सामान्य नागरिकों के इस आंदोलन को राजनीतिक बताने का दुस्साहस कर रही है। क्या भ्रष्टाचार कुछ दलों की ही समस्या है ? इसके कारण देश की आंतरिक सुरक्षा खतरे में नहीं पड़ गई है ?

इस बात पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि केन्द्र सरकार हर प्रकार से उन सभी लोगों को पथभ्रष्ट साबित करने की हिमाकत कर रही है, जो लोग केन्द्र सरकार से भ्रष्टाचार पर स्पष्ट नीति बनाने की बात कर रहे हैं, और विदेशों में जमा पैसे को वापस लाने की मांग को पूरा करने की जिद पर अड़े हुए हैं। इसी के साथ सत्ता द्वारा उन प्रतीक चिन्हों पर भी लगातार आक्रमण हो रहे हैं, जिनके बारे में सरकार को यह अंदेशा है कि वो जनता के सामने आस्था का केन्द्र हैं। चाहे वह सत्यसाई बाबा के निधन के बाद उनके आश्रम की संपत्ति हो या बाबा रामदेव के ट्रस्ट की संपत्ति का मामला हो या अन्ना हजारे की नैतिकता का प्रश्न ? सरकार का हर कदम रोज़ एक नए संदेह को जन्म दे रहा है। सरकार की मंशा भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के नेताओ को बदनाम करने की है, उसका हर कदम हर बार इस बात को सिद्ध करता है कि सरकार हर उस आदमी की आवाज को दबा देने की मंशा रखती है, जिस आवाज में सरकार से जवाब मांगने की बुलंदी हो।

आश्चर्यजनक तो यह है कि केन्द्र सरकार जितनी दृड़ संकल्पित इन आंदोलनों को कुचलने के लिये दिखती है, उसका उतना दृड़ संकल्प भ्रष्टाचार निरोध के उपाय करने में नहीं दिखता। राजनीतिक समीक्षक यह मानने लगे हैं कि सरकार लोकतंत्र को मजबूत करने की बजाय उसका इस्तेमाल रक्षाकवच के रूप में कर रही है। यह याद रखे जाने की जरूरत है कि लोकतंत्र की नींव ही ‘असहमति के आदर व सम्मान’ पर टिकी है और जिस प्रकार से सरकार, सामाजिक कार्यकर्ताओं और संस्थाओं को अपना व्यक्तिगत दुश्मन मानने लगी है, उससे यह प्रमाणित होने लगा है कि सरकार की नीयत में खोट है और अब तो जनता का यह विश्वास और ज्यादा गहरा हो गया है कि सरकार ‘अपने संरक्षणकर्ताओं’ को बचाने के लिए अपनी संवैधानिक ताकत का ठीक उसी प्रकार से दुरूपयोग कर रही है, जैसी कि ब्रिटिश शासन काल में महारानी विक्टोरिया के सैनिक करते थे।

यह भी आश्चर्यजनक है कि देश ही नहीं विदेश के सभी प्रबुद्धजन आज भी प्रधानमंत्री को बेईमान नहीं मानते। हां, वे देश के वर्तमान हालातों में प्रधानमंत्री की विवेकहीनता और अनिर्णय की स्थिति से निराश जरूर हैं। तो, ऐसी स्थिति में कांग्रेस को प्रस्तावित लोकपाल बिल से क्या आपत्ति हो सकती है ? दुर्भाग्यजनक स्थिति तो यह है कि कांग्रेस भी मनमोहन सिंह को भारत के प्रधानमंत्री की बजाय एक ऐसे सेवक के रूप में देखती है, जो श्रीमति सोनिया गांधी के प्रति वफादार है। तो हमें यह समझने की जरूरत है कि एक ओर जहाँ देश की आम जनता लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री सहित सर्वोच्च नौकरशाही को लेने के लिए आंदोलनरत है, वहीं कांग्रेसी आज भी श्रीमती सोनिया गांधी, राहुल गांधी या प्रियंका को प्रधानमंत्री बनते हुए देखना चाहते हैं । इसीलिये कांग्रेस को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लोकपाल के दायरे में लाने में कोई एतराज नहीं है, दिक्कत तो तब है जब गाँधी परिवार का कोई सदस्य इस देश का प्रधानमंत्री बनेगा. इसके अलावा कांग्रेस को एक भय भी सता रहा है कि प्रधानमंत्री के लोकपाल के दायरे में आ जाने के बाद कांग्रेस के अस्तित्व पर ही संकट आ जायेगा, क्योंकि कांग्रेस में ईमानदारी और ईमानदार नेताओं का संकट है।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी

(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं)

Tuesday, June 7, 2011

प्रधानमंत्री जवाब दो


बाबा रामदेव के सत्याग्रह के दौरान 4-5 जून की रात्री में केन्द्र सरकार के इशारे पर जो कुछ हुआ, उसे देश ही नहीं पूरी दुनिया के लोगों ने देखा। सभी जानना चाहते हैं कि जितने भी लोग बाबा रामदेव के साथ अनशन पर बैठे थे, वे क्या चाहते थे? वे सिर्फ इतना चाहते कि केन्द्र सरकार एक अध्यादेश लाए जिसमें कहा जाए कि “विदेशो जमा कालाधन राष्ट्रीय संपत्ति है और केन्द्र सरकार उसको वापस लाने के लिए वचनबद्ध है।”
यह मांग किसी राजनीतिक दल की नहीं है, यह मांग उन करोड़ों भारतीय की है, जो अपने खून पसीने की कमाई को विभिन्न कर के रूप में भारत सरकार को इसलिये देते हैं कि वे जिस देश में रहते हैं, उस देश का समग्र विकास हो, हर हाथ को काम मिले, बच्चों को शिक्षा मिले, गांवों में आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध हो, हर खेत को पानी मिले, जिससे यह देश फिर गुलामी के दलदल में नहीं फंसे और भारत स्वाभिमान के साथ फिर से उठ खड़ा हो।
प्रश्न यह उठता है कि क्या यह मांग गलत है? क्या भारत के नागरिकों को चाहे वे करदाता हों या ना हों, उन्हैं यह अधिकार नहीं है कि वे देश के विकास की मांग करें, वे सरकार से स्वच्छ प्रशासन की अपेक्षा करें । वे देश की उस समस्या से मुक्ति की इच्छा भी व्यक्त करें जिससे आम आदमी त्रस्त और परेशान है। क्या यह मांगें राजनीतिक हैं? जो लोग वहां इकटठा हुए थे, वे अपने लिए आरक्षण नहीं मांग रहे थे, ना ही यह कह रहे थे कि भारत में आतंक फैलाने के अपराध में फांसी की सजा पाए अफजल गुरू और मोहम्मद कसाब को तत्काल फांसी दी जाए, ना ही उन्होंने किसी राजनीतिक व्यक्ति का नाम अपने मंच से लिया था और ना ही उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मंत्रीमंडल में शामिल मंत्रियों के इस्तीफे की मांग की थी। तो फिर ऐसा कौनसा कारण था कि केन्द्र सरकार ने पांडाल में सोये हुए लोगों पर आक्रमण बोल दिया, उन पर आंसू गैस के गोले छोड़े, हवाई फायर किये, मंच को आग लगाकर अफरा तफरी का माहौल बना दिया ? वृद्धों, महिलाओं और बच्चों पर ना केवल लाठियां भांजी अपितु उनके साथ जानवरों जैसा व्यवहार करते हुए घसीट घसीट कर बाहर निकाला।
आखिर कैसे हमारे लाचार और बेचारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जिनको यह पता ही नहीं चलता कि उनकी सरकार में कितने मंत्रयिों ने कितना भ्रष्टाचार कर लिया, उनमें अचानक इतनी ताकत आ जाती है कि वे कहने लगे कि इस कार्यवाही के अलावा उनकी सरकार के पास और कोई विकल्प ही नहीं बचा था। भारत के हर नागरिक को प्रधानमंत्री से यह प्रश्न पूछना चाहिये कि वे किनको बचाना चाह रहे हैं? और जो लोग 4-5 जून की रात को पांडाल में थे, क्या उन्होंने दिल्ली के एक भी नागरिक के साथ अभद्रता की थी? पुलिस या प्रशासन के साथ असहयोग किया था? क्या बाबा रामदेव के आव्हान पर भारत भर से जो लोग वहां पर आये थे, वे छंटे हुए गुंडे और बदमाश थे? क्या उनके पास प्राण घातक हथियार थे ?
क्या वे स्थानीय नागरिकों के लिए खतरा बन गये थे? यदि ऐसा नहीं था, तो इस बर्बर कार्यवाही का सरकार के पास क्या जवाब है? क्या सरकार यह भूल चुकी है कि 15 अगस्त 1947 की मध्य रात्री को भारत एक लोकतांत्रकि देश के रूप में दुनिया के सामने आ चुका है। भारत में रहने वाले लोगों के कुछ नागरिक अधिकार भी हैं? जिनकी रक्षा के लिए हर लोकतांत्रकि सरकार जिम्मेदार है? क्या जिस कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने शिक्षा प्राप्त की है, वहां उन्हें यही सिखाया और पढ़ाया गया था कि निर्दोष नागरिकों और अपने संवैधानिक अधिकार के लिए लड़ने वाले लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाए। क्या प्रधानमंत्री के जन्मदाताओं ने उनकी हर मांग का जवाब इसी अंदाज में दिया था, जैसा कि उनकी सरकार ने भारत के नागरिकों के साथ किया? प्रश्न बहुत सारे हैं।
सवाल यह भी है कि यह सरकार भारत के नागरिकों को किस रूप में देखती है, और जिन मतदाताओं के मतों पर जीतकर सत्ता प्राप्त करती है, उनके साथ किस तरह का व्यवहार करती है। क्यों भारत के राजनेता हर मुद्दे का राजनीतिकरण कर देते हैं? क्या भ्रष्टाचार सिर्फ राजनीतिक दलों का विषय है, इस पर भारत की जनता को बोलने का कोई अधिकार ही नहीं है, जो भ्रष्टाचार से आकंठ पीड़ित है? स्वतंत्र भारत में देश की आजादी के बाद भ्रष्टाचार के कई मामले सामने आये, परंतु किसी भी सरकार ने कभी भी यह साबित करने की कोशिश नहीं की कि वह किसी भी तरह के भ्रष्टाचार को लेकर असहनशील है।
सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक तो यह है कि सत्तारूढ़ दल के पदाधिकारी या सरकार के मंत्रियो ने एक बार भी देश की जनता से अपने कुकृत्य के लिए माफी नहीं मांगी? और बजाय ए राजा, कनीमोझी, सुरेश कलमाडी, सोनिया गांधी, शरद पवार और अजीत चव्हाण से यह पूछने के कि उनकी अकूत संपत्ति कहां से आई है, वे बाबा रामदेव से यह पूछ रहे हैं कि इस सत्याग्रह को करने के लिए पैसा कहां से आ रहा है? और बाबा रामदेव के सहयोगी आचार्य बालकृष्ण को नेपाली नागरिक बताने वाले कांग्रेस के प्रवक्ता यह क्यों भूल जाते हैं कि उनकी पार्टी की अध्यक्ष भी भारतीय नहीं है। और जो दिग्विजय सिंह बाबा रामदेव को महाठग बता रहे हैं, उन्हें यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि केंद्र सरकार के ४ मंत्री इस ठग से क्यों बात करने गए थे ?
यह तथ्य भी गौर करने लायक है कि जब से बाबा रामदेव ने सोनिया गांधी और मनमोहन सरकार पर उनको जान से मार डालने के षड़यंत्र रचने का आरोप लगाया है,और उन्हैं कुछ भी होने के लिए सोनिया गांधी को जिम्मेदार बताया है, तब से पूरी कांग्रेस पार्टी बजाय देश से माफी मांगने के सोनिया गांधी के बचाव में उतर आई है, और कांग्रेस के महामंत्री जनार्दन दिवेदी का यह कहना कि ‘‘सत्याग्रही मौत से बचने के लिए महिलाओं के कपडे पहनकर भागता नहीं है।’’ बाबा रामदेव के इस आरोप को पुष्ट ही करता है कि सरकार ने उनको मारने का षड़यंत्र रचा था।
लेकिन सरकार और कांग्रेस को इतिहास को एक बार खंगाल लेना चाहिये। उन्हैं यह याद रखना चाहिये कि भारत के नागरिकों का आत्मबल बहुत मजबूत है। जो भारत 1200 साल की गुलामी सहने के बाद भी अपना अस्तित्व बचाये रख सकता है। इंदिरा गांधी के कठोर आपातकाल को झेल सकता है, वह सत्ताधीशो की दमनकारी मानसिकता से डरने वाला नहीं है। राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री स्व0 जयनारायण व्यास द्वारा आज से 60 साल पहले लिखी गई यह कविता उन सभी लोगों के लिए प्रेरणा और चेतावनी हैं जो नागरिकों को सम्मान की निगाह से नहीं देखते।
‘‘ भूखे की सूखी हडडी से,
वज्र बनेगा महाभयंकर,
ऋषि दधिची को इर्ष्या होगी,
नेत्र तीसरा खोलेंगे शंकर,
जी भर आज सता ले मुझको,
आज तुझे पूरी आजादी,
पर तेरे इन कर्मो में छिपकर,
बैठी है तेरी बरबादी,
कल ही तुझ पर गाज गिरेगा,
महल गिरेगा, राज गिरेगा,
नहीं रहेगी सत्ता तेरी,
बस्ती तो आबाद रहेगी,
जालिम तेरे इन जुल्मों की,
उनमें कायम याद रहेगी।
अन्न नहीं है, वस्त्र नहीं है,
और नहीं है हिम्मत भारी,
पर मेरे इस अधमुए तन में
दबी हुई है इक चिंगारी
जिस दिन प्रकटेगी चिंगारी
जल जायेगी दुनिया सारी
नहीं रहेगी सत्ता तेरी,
बस्ती तो आबाद रहेगी,
जालिम तेरे इन जुल्मों की,
उनमें कायम याद रहेगी।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी
(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं)

Thursday, April 28, 2011

हे ! भारत तुम कहाँ हो !


क्या भारत सिर्फ एक बाजार है ? जहां पर खरीदने और बेचने वाले लोगों का बोलबाला है और क्या यहां सिर्फ पैसा ही पूजा जाता है ? और चूंकि बाजार का उद्देश्य मुनाफा कमाना होता है इसलिये वह किसी भी नियम, नीति और अनीति को नहीं मानता। इसलिये वहां की राज्यसत्ता को देश के आत्मिक संस्कार नहीं बाजार के दलाल संचालित करते हैं। या भारत का कोई सांस्कृतिक अतीत भी है, जो भारत की विद्वता, संस्कार, आत्मिक चेतना, आध्यात्मिक उर्जा और उन सबसे अलग जीवन दर्शन के लिए विश्व में विख्यात था, लेकिन हमारे शासकों की अकर्मण्यता ने भारत के चैतन्यमयी और संस्कारी स्वरूप को नष्ट कर एक बाजार बना दिया।

आश्चर्य तो तब होता है जब देश के राजनेता विदेशों में जाकर अपने देश के संस्कारों की बात नहीं करते, अपने देश की उर्जा और उसकी ताकत की बात नहीं करते, हमारे उच्च मानवीय मूल्यों की बात नहीं करते,अपितु वे बात करते हैं तो ये बताते हैं कि वे कहां और क्या बेच सकते हैं या वे कितना बिक चुके हैं और कितना बिकना बाकी हैं। वे अपने देश को बाजार बनाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। और यही मानसिकता है जो भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार को संरक्षित और पल्लवित करती है।

भारत में जैसे जैसे भ्रष्टाचार का मुद्दा गर्माता जा रहा है,राजनेताओं की छिछालेदार सामने आ रही है, आश्चर्य तो तब होता है जब भारत की राजनीति के प्रेम चौपड़ा कांग्रेस महामंत्री दिग्विजय सिंह हर उस व्यक्ति के कपडे उतारने लग जाते हैं , जो भी भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपनी आवाज उठाता है और पूरी कांग्रेस पार्टी में एक भी ऐसा नेता नहीं है जो उनसे कहे कि वे अपना अर्नगल प्रलाप बंद करें। तो क्या यह नहीं माना जाना चाहिये कि दिग्विजय सिंह 10, जनपथ के इशारे पर ये सब हरकतें कर रहे हैं। समझ में नहीं आता कि वे किसके सामने अपनी निष्ठां दिखाना चाहते हैं. सोनिया गाँधी के प्रति या भारत के प्रति।

भारत की सबसे बड़ी त्रासदी यह रही है कि हम सिर्फ संकटों के समय में ही एकजुटता दिखा पाये हैं। भारत का नागरिक देश के मान अपमान को राजाओं का विषय मानता आया है। इन्हीं कुछ राजाओं के कारण भारत सिकुड़ता चला गया। नोबल पुरूस्कार प्राप्त सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री वी एस नायपाल ने अपनी पुस्तक ’भारत – एक आहत सभ्यता‘ में हमारे राष्ट्रीय चरित्र की व्याख्या करते हुए लिखा है कि ’’कहा जाता है कि सत्रह वर्ष के एक बालक ने नेतृत्व में अरबों ने सिंध के भारतीय राज्य को रौंदा था, उस अरब आक्रमण के बाद से भारत सिमट गया है। अन्य कोई सभ्यता ऐसी नहीं, जिसने बाहरी दुनिया से निपटने के लिए इतनी कम तैयारी रखी हो। कोई अन्य देश इतनी आसानी से हमले और लूटपाट का शिकार नहीं हुआ। शायद ही ऐसा कोई और देश होगा, जिसने अपनी बर्बादियों से इतना कम (सबक) सीखा होगा।‘‘ श्री वी एस नायपाल को साहित्य के लिए 2001 में नोबल पुरूस्कार प्रदान किया गया था। उनके पुरूखे भारत से गिरमिटिया मजदूर की तरह त्रिनिदाद चले गये थे । श्री नायपाल को उनके त्रिनिदाद का नागरिक होने पर गर्व भी है। लेकिन वे अपने पुरूखों की मातृभूमि के रखवालों की मानसिकता से पेरशान हैं। श्री नॉयपाल ने साबित कर दिया कि यही वो कारण है कि हमने अपने मान सम्मान को भारत के मान अपमान से ज्यादा बड़ा समझा ।

आज स्थिती यह है कि हमारे राजनेता, जो कोई भारत के मान सम्मान के लिए बोलता है, उसे सांप्रदायिक कहने और साबित करने में पल भर की भी देरी नहीं लगाते। इसी कारण आज कश्मीर में पाकिस्तान के हौंसले बुलंद है। इसी कारण 15 अगस्त 1947 को प्राप्त बंटे हुए भूभाग में से एक लाख वर्ग किलोमीटर मातृभूमि को पाकिस्तान और चीन दबाये बैठे हैं। इसे समझे जाने की जरूरत है कि आज हम जिस भारत को दुनिया के मानचित्र पर देखते हैं, सिर्फ वही भू भाग भारत नहीं है। वर्तमान ईरान (जिसे पहले आर्यन कहा जाता था ) से लेकर सुमात्रा, बाली इंडोनेशिया तक के द्वीप भारत की विशालता की कहानी कहते हैं। हजार सालों के विदेशी आक्रमण के बाद भारत बंटता चला गया और हमारे देश का राजनीतिक नेतृत्व अपने स्वार्थ और सत्ता के दंभ में भारत को एक नहीं रख पाया और स्थिति आज यहां तक है कि कश्मीर के जिस हिस्से को हम अपने मानचित्र में दर्शाते हैं, वहां भारत की सेना भी नहीं जा सकती, आम भारतीय के जाने की बात तो बहुत दूर है। हमारे शासक उस एक एक इंच मातृभूमि को वापस लाने की बात तक नहीं करते।

आज भी भारत के शासक अपने इस झूठे दंभ और अहंकारी मानसिकता से बाहर नहीं आ पाये हैं। इसी कारण हम तिल तिल कर मारी जा रही मातृभूमि के दैवीय स्वरूप को स्वीकार नहीं करते, अपितु इसे सिर्फ एक बाजार के रूप में ही देखते हैं। प्रश्न उठता है कि यदि भारत एक बाजार है, तो इसके नागरिक क्या हैं ? क्या भारत के नीति नियंताओं को यह भी समझाना पडेगा कि मातृभूमि और मां में बाजार नहीं संस्कार देखे जाते हैं। ये बात तो विदेशी मूल की सोनिया गांधी भी समझती हैं, पर हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, गृह मंत्री पी चिदंबरम, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और उनके भौंपू दिग्विजय सिंह, अभिषेक मनु सिंघवी और मनीष तिवारी को क्यों समझ नहीं आती?

इसका कारण है हमारी तथाकथित शिक्षा। जिसने हमें हमारी अस्मिता से विलग कर दिया है। ब्रिटिश शिक्षा शास्त्री और राजनेता लार्ड मैकाले की भविष्यवाणी सही साबित हुई। आज से लगभग 175 साल पहले भारत का वर्णन करते हुए लार्ड मैकाले ने 2 फरवरी1835 को ब्रिटिश संसद को संबोधित करते हुए कहा था कि ’’ मैंने भारत की सभी जगह देखी हैं, मैंने इस यात्रा के दौरान एक भी ऐसे व्यक्ति को नहीं देखा जो भीख मांगता हो या चोर हो। उनके चरित्र बहुत उज्जवल हैं, वे बहुत योग्य और कर्मठ हैं। यही उनकी संपदा है। मुझे नहीं लगता कि हम इस देश को कभी जीत पायेंगें, जब तक कि हम इस देश के मेरूदण्ड़ को ना तोड़ दें, जो कि इस देश की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक ताकत है। और इसलिये मैं उनके सांस्कृतिक, पुरातन और प्राचीन शिक्षा व्यवस्था को बदलने का प्रस्ताव रखता हूं । यदि भारतीय यह सोचने लग जाएं कि जो विदेशी और इंग्लिश है वह ही अच्छा है, और उनकी संस्कृति से बेहतर है तो वे अपनी आत्मिक उर्जा और अपनी परंपराओं को खो देंगें और तब वे वैसे बन जाएंगें जैसा कि हम चाहते हैं।‘‘

लार्ड मैकाले ने मात्र 175 सालों में वो कर दिखाया जो अनेको हमले और हजारों साल की गुलामी भारत को ना कर सकी। सांस्कृतिक और आत्मिक चेतना से परिपूर्ण भारत की जगह एक बाजार ने ले ली है। विडम्बना यह है कि जिन सपूतों को मां के आंचल की रक्षा करनी चाहिये, वे उसके आंचल को उघाड़ कर उसमें बाजार ढूंढ़ रहे हैं। तो जब बाजार ही मां के आंचल की बोली लगायेगा, तो पड़ोसी के घर भले ही चूल्हा ना जले, पर अपनी शाम रंगीन होगीं हीं और भारतमाता का एक पुत्र दूसरे पुत्र की मदद करने की एवज में रिश्वत मांगें तो उसमें कैसा आश्चर्य? हे भारत तुम कहां हो, जिसकी रक्षा के लिए हमारे पूर्वजों ने जान की बाजी लगा दी थी।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी

लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं।

Saturday, April 16, 2011

जवाब राजनेताओं को देना है

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सहसा यह विश्वास ही नहीं होता कि आजाद भारत के राजनेता किस दुस्साहस के साथ जनता द्वारा उठाये गये मुद्दों को नकारने में लगे हैं। क्या भ्रष्टाचार के समर्थन या विरोध के बारे में भी कोई दो राय भी हो सकती हैं ? यह साफ साफ समझे जाने की आवश्यकता है कि भारत की जनता के लिये ना तो बाबा रामदेव महत्वपूर्ण हैं और ना ही अन्ना हजारे। उसके लिये महत्व इस बात का है कि वह तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार से त्रस्त हो चुकी है और यदि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस मुद्दे पर अपने पद को छोड़कर जनता के आव्हान में शामिल होते हैं तो भारत की जनता उन्हैं भी बाबा रामदेव और अन्ना हजारे की तरह अपनी पलकों पर बिठा लेगी। अब यह तय मनमोहन सिंह को करना है कि उनमें अपनी ईमानदारी को साबित करने का दम है भी या नहीं।
केन्द्र सरकार जिस प्रकार से भ्रष्टाचार को नकार रही है, उसके लिये भ्रष्टाचार का जीता जागता उदाहरण आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री स्व0 वाई0 एस0 आर0 रेड्डी के पुत्र जगनमोहन रेड्डी ने प्रस्तुत किया है। आगामी 8 मई को कड्डपा लोकसभा क्षेत्र के लिये होने वाले उपचुनावों के लिए जगनमोहन रेड्डी ने निर्वाचन आयोग को अपनी संपत्ति 365 करोड़ रूपये बताई है, जबकि 2009 में जब उन्होंने निर्वाचन आयोग को अपनी संपत्ति मात्र 77 करोड़ रूपये बताई थी। मात्र 23 महिनों में ही उनकी संपत्ति 5 गुना तक बढ़ गई । यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि स्व0 वाई0 एस0 आर0 रेड्डी कांग्रेस सरकार के ना केवल मुख्यमंत्री थे, बल्कि कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी के विश्वासपात्रों में से भी एक थे। उनकी आकस्मिक मृत्यु के बाद उनके पुत्र को कांग्रेस ने मुख्यमंत्री नहीं बनाया इसीलिये उन्होंने कांग्रेस को छोड़कर नइ पार्टी बना ली। इसके विपरीत दूसरी तरफ भारत के संभ्रांत नागरिक हैं जिनके द्वारा दिये गए आयकर से भारत सरकार को अब तक की सबसे बड़ी आय हुई है। हाल ही में एक समाचार ये भी आया है कि भारत सरकार को इस बार आयकर के रूप में 456 लाख करोड़ रूपयों की आमदनी हुई है। प्रश्न यह है कि भारत का रहने वाला नागरिक क्या इसलिये कर चुकाता है कि वह पैसा देश के विकास की बजाय इन नेताओं की जेबों में जाये।
दरअसल, भारत के राजनेताओं ने चुनावों को अपनी सुरक्षा का हथियार बना लिया है। ये लोग पैसे के बल पर ही सत्ता प्राप्त करते हैं, और सत्ता में आने के बाद वही पैसा कमाने के लिए लोकतंत्र की कमियों का फायदा उठाते हैं। प्रश्न यह भी है कि क्या लोकतंत्र का अर्थ जनता की आवाज को अनसुना करना ही होता है, क्या चुनावों का उत्सव इसलिये मनाया जाता है कि देश को जाति, वर्ग , भाषा में बांटकर सत्ता सुख की प्राप्ति की जा सके, और जिन मतदाताओं ने राजनीतिक दलों को सत्ता चलाने का अधिकार दिया है, उनकी आवाज को घोंट दिया जाए। आखिर वो कौनसी शिक्षा है जिसके चलते जो भी व्यक्ति जनप्रतिनिधि निर्वाचित हो जाता है, वह सदन में पहुंचते ही जनता के मुद्दों को गौण समझने लगता है और सत्ता को सर्वोच्च । आखिर कैसे जनप्रतिनिधियों को सदन में पहुँचते ही यह विशिष्ट योग्यता हासिल हो जाती है कि वे जनता की मांगों को शासक की अवज्ञा के रूप में लेने के लिये स्वतंत्र हो जाते हैं और शासन के प्रति अवज्ञा को कुचलने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। इन राजनेताओं ने लोकतंत्र जैसे वरदान को अभिशाप में बदल दिया है, इसी कारण नागरिकों का एक बड़ा वर्ग मतदान के प्रति अरूचि व्यक्त करने लगा है।
पहले बाबा रामदेव और अब अन्ना हजारे को भ्रष्ट साबित करने में अपनी उर्जा को खपा रहे राजनीतिक दलों के राजनेता क्या यह साबित करना चाहते हैं कि जो भी व्यक्ति भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलेगा, वे उस व्यक्ति को भी भ्रष्टाचार के दल दल में घसीट लेने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे । इसलिये जो भी व्यक्ति अपनी ईमानदारी को बचाकर रखना चाहते हैं वे भ्रष्टाचार के खिलाफ एक शब्द भी न बोलें। क्या यह माना जाए कि यह जनता को शासक वर्ग से मिल रही धमकी है ?
यह स्पष्ट रूप से समझे जाने की जरूरत है कि जो लोग अन्ना हजारे के समर्थन में सड़कों पर उतरे थे, वे केवल प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में शामिल करने की मांग पर नहीं आये थे। वे चाहते थे कि अन्ना हजारे भ्रष्ट मंत्रियों और अधिकारियों के खिलाफ होने वाले लोकतान्त्रिक आंदोलन के ठीक उसी प्रकार वाहक बनें जैसा कि जयप्रकाश नारायण ने 1975 में इंदिरा गांधी के अलोकतांत्रिक व्यवहार व सरकार के विरूद्ध किया था। लेकिन सत्ता में बैठे लोग अपने प्रभाव और पैसे के कारण भारत के नागरिकों को गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं।
अच्छा तो यह होता कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का दंभ भरने वाले राजनेता भ्रष्टाचार पर देश भर में चल रही बहस को देखते हुए इस मुद्दे पर संसद में बात करते, और जनता को यह विश्वास दिलाते कि भारत के राजनीतिक दल भी भ्रष्टाचार को जड़मूल से समाप्त करने के लिए कृतसंकल्पित हैं। प्रश्न यह है कि क्यों नहीं इस विषय पर सभी राजनीतिक दल अपने मतदाताओं को विश्वास दिलाने के लिये आमराय बनाते कि वे सब उस व्यवस्था को समाप्त करने के लिए संकल्पित हैं, जो भ्रष्टाचार की जननि है।
क्या वे इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि भारत के नागरिक अवज्ञा पर उतर जायें और सरकारों को सभी प्रकार के कर देने से मना कर दें। क्यों नहीं भारत के तमाम राजनेता भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जनमत संग्रह कराने का साहस दिखाते? या केन्द्र सरकार भ्रष्टाचार पर एक श्वेत पत्र जारी करती जो भारत की जनता को यह बता सके कि सरकार की नजर में देश में भ्रष्टाचार की क्या स्थिति है ? या जनता को ही यह अधिकार देते कि वह अपने द्वारा निर्वाचित जनप्रतिनिधि को वापस भी बुला सकती है।
स्व0 प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी जब नए नए प्रधानमंत्री बने थे, तो उन्होंने यह कहने का साहस दिखाया था कि केन्द्र सरकार से चला एक रूपया गांव तक आते आते 15 पैसा रह जाता है, ये बात अलग है कि बाद में उन्हीं राजीव गांधी पर बोफोर्स तोप के सौदे में दलाली खाने का आरोप लगा। उसी तरह का साहस स्व0 राजीव की पत्नी श्रीमती सोनिया गांधी के मार्गदर्शन में चलने वाली मनमोहन सिंह की सरकार क्यों नहीं कर पा रही है? प्रश्न यह भी महत्वपूर्ण है कि श्रीमती सोनिया गांधी की ऐसी कौनसी दुविधा है, जो उन्हैं अपने स्व0 पति की व्यथा को दूर करने से रोक रही है। क्या यह माना जाए कि उनके मार्गदर्शन में चलने वाली सरकारों में हो रहे भ्रष्टाचार को उनकी स्वीकृति प्राप्त है?
जरूरत इस बात की है कि विभिन्न राज्यों में सत्ता का सुख भोग रहे और भोग चुके राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के बारे में अपने मत को स्पष्ट करें, इस मुद्दे उनकी टालमटोल की नीति का अर्थ यह लगाया जाएगा कि वे भ्रष्टाचार का समर्थन करते हैं और आज के हालात में भ्रष्टाचार को अपरिहांर्य मानते हैं। हमें यह याद रखना होगा कि इस देश ने सदियों से अपने उपर हुए आक्रमणों को झेलकर भी अपने आप को बचाए रखा है और जब आक्रमण घर के भीतर से ही हो रहा हो तो जनप्रतिक्रिया कैसी होगी इसके लिए राजनेता भारत का इतिहास एक बार फिर पढ़ लें। अब जवाब राजनेताओं को देना है, देश की जनता उनके निर्णय का इंतजार कर रही है।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी
(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं)


Wednesday, April 6, 2011

भारत का भारत से संघर्ष

देश भर में भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहीम चल पड़ी है। इस बार भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहीम सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीविओं का एक बड़ा वर्ग चला रहा है। सुप्रसिद्ध समाज सेवी अन्ना हजारे ने भी भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए गांधीवादी तरीके से आमरण अनशन की शुरूआत की है, और आश्चर्य इस बात का है कि देश -विदेश में इमानदार प्रधानमंत्री के रूप में पहचाने वाले मनमोहन सिंह ने अन्ना हजारे से अपील की है कि वो इस मुद्दे पर आमरण अनशन ना करें। क्या इसका अर्थ यह लगाया जाना चाहिये कि देश के प्रधानमंत्री नहीं चाहते कि भ्रष्टाचार भारत में मुद्दा बनें, और यह भी कि वे कौन लोग हैं जिनको भ्रष्टाचार के मुद्दा बन जाने से अपने अस्तित्व पर संकट खड़ा होता नजर आ रहा है?
दरअसल, आजादी के बाद से ही शासन व्यवस्था को संभालने वाले अंग्रेंजों के हिन्दुस्तानी उत्तराधिकारियों ने भारत की जनता को शासक और शासित की मानसिकता से ही देखा और सत्ता का इस्तेमाल अपनी विपन्नता को सम्पन्नता में बदलने के लिए एक हथियार के रूप में किया। इन राजनेताओं ने स्वाधीनता सैनानियों के संघर्षो और बलिदानों के साथ ना केवल विश्वासघात किया अपितु भारत की उस बेबस जनता के विश्वास को भी छला जो इनसे आत्मगौरव और स्वाभिमान से युक्त भारत की संकल्पना सजाए बैठे थे। आज हालात यह हैं कि ये राजनेता सत्ता की प्राप्ति के लिए देश के मतदाताओं को ही खरीदने का दुस्साहस करने लगे हैं। अभी जिन पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं, वहां के राजनीतिक दल शराब से लेकर टी वी फ्रिज तक देकर वोटों को खरीदने का ना केवल दुस्साहस कर रहे हैं अपितु अपने इस अपराध में एक हद तक वे सफल भी हो रहे हैं।
इसी कारण पिछले कई सालों से भारत की प्रशासनिक एवं राजनीतिक व्यवस्था को भ्रष्टाचार की दीमक लग चुकी है और भ्रष्टाचार के विरूद्ध आम आदमी में ना केवल गहरी पीड़ा है, अपितु वह मन से आहत भी है। आजादी के बाद बनी पहली सरकार में ही भ्रष्टाचार की बू आने लग गई थी, लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ तब के राजनेताओं की चुप्पी और अनदेखी ने हालात को इतना बिगाड़ दिया कि आज पूरा देश भ्रष्टाचारियों से संत्रस्त है। किसी को यह विश्वास नहीं है कि भारत का प्रशासनिक, न्यायिक और राजनीतिक तंत्र भ्रष्टाचार से मुक्ती की अभिलाषा भी रखता है और इस अविश्वास के पीछे एक ठोस कारण भी है कि भारत की सरकारें आज तक यह सुनिश्चित नहीं कर पाई हैं कि भ्रष्टाचाररियों के लिए सत्ता के प्रतिष्ठानों में कोई भी स्थान नहीं है।
२०१० में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक सर्वे हुआ, ट्रांसपिरेसीं इन्टरनेशनल द्वारा विश्व के १७८ देशो में किये गये इस सर्वे में भारत को ८७ वें स्थान पर पाया गया और इसी संस्था ने यह भी दावा किया कि भारत विश्व के भ्रष्टतम देशो में से एक है। यहां तक कि दक्षिणी एशियाई देशो में भी भारत अपने पड़ोसी देशो (पाकिस्तान -143, बंगलादेश -134, नेपाल-146 और श्रीलंका - 92) से भ्रष्टाचार में बहुत आगे है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक तथ्य और क्या हो सकता है।
एक अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थान इन्टरनेशनल वाच डाग ने अपने अध्ययन में यह पाया है कि 1948 से 2008 तक के 60 सालों में 462 बिलीयन डालर यानी 20 लाख करोड़ से ज्यादा रूपये गैर कानूनी तरीके से भारत के बाहर ले जाए गए। यह राशि भारत के सकल घरेलु उत्पाद का 40 प्रतिशत है। और जिस 2 जी घोटाले को लेकर उच्चतम न्यायालय ने सरकार की नकेल कस रखी है, उससे यह राशि 12 गुना अधिक है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में आर्थिक विशेषज्ञ रहे श्री देव कार के अनुसार 11.5 प्रतिशत की दर से हमारे खून पसीने की कमाई को विदेशी बैंकों में जमा किया जा रहा है। तभी तो स्विस बैंक यह कहते हैं 1456 बिलियन डालर के साथ भारतीयों की
सर्वाधिक मुद्रा उनके बैंकों में जमा है। यह धन भारत पर कर्जे का 13गुना है। इन सब तथ्यों में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि विदेशी बैंकों में जमा इस काले धन का 50 प्रतिशत हिस्सा 1991 में लागू किये गए आर्थिक सुधारों के बाद ही इन बैंकों में पहुंचा, और यह याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि हमारे वर्तमान इमानदार प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ही उस समय वित्त मंत्री के रूप में भारत को अंतर्राष्ट्रीय बाजार बना रहे थे।
देश के प्रति अपराधों की श्रृंखला सिर्फ यहां ही नहीं थम रही है, पीढ़ियों से सत्ता पर काबिज राजनीतिक परिवारों में से एक गांधी परिवार, तमिलनाडू के करूणानिधि या जयललिता, आंध्रप्रदेश के चंद्र बाबू नायडू या स्व. मुख्यमंत्री वाइ एस आर रेड्डी, कर्णाटक के मुख्यमंत्री एस येडडूरप्पा, महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान खाद्य मंत्री शरद पवार, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती, पूर्व मुख्यमंत्री व घोषित समाजवादी मुलायम सिंह और लालू यादव, पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और जम्मू कश्मीर का अब्दुल्ला परिवार ऐसे राजनीतिक परिवारों के रूप में उभरे हैं, जिनकी काली कमाइयो के चर्चे उनके ही दलों के राजनीतिक कार्यकर्ता बड़े ही दंभ के साथ करते हैं, और भारत के लोकतंत्र की यह मजबूरी है कि बिना इन राजनीतिक दलों के सहयोग और सत्ता बंटवारे के कोई भी राजनीतिक दल सरकारें नहीं बना सकता। चाहे वो बोफोर्स खरीदने के मामले में राजीव गांधी को चुनौती देने वाले स्व० विश्वनाथ प्रताप सिंह हों या देश के पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी।
यह भ्रष्टाचार ही तो है कि आजादी के बाद से खरबों रूपये खर्च होने के बावजूद भारत के ग्राम अपनी किस्मत और बदहाली को बदल नहीं पाये हैं। वे पेयजल, सड़क, विद्यालय और चिकित्सालय जैसी आधारभूत सुविधाओं से भी वंचित हैं। देश के विकास में अपना श्रम पसीने की तरह बहा देने वाले मजदूर और किसान बी पी एल कार्ड में नाम लिखवाने के लिए संघर्षरत हैं। मध्यभारत के वनवासियों को विदेशी शक्तियां बंदूकें देकर भारत में ही आंतरिक संघर्षो को बढ़ावा दे रही हैं।
तो आज जब भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का आगाज हो रहा है, तो यह भारत की उसके विदेशी शत्रुओं से लड़ाई नहीं है, यह भारत का भारत के प्रति संघर्ष है। जहां अमीरों की संख्या जिस गति से बढ़ रही है, उतनी ही गति से किसान आत्महत्या कर रहे हैं, देश के 40 करोड़ लोगों को दो समय का निवाला नहीं मिल रहा है, विद्यालयों में जाने वाले छात्रों का प्रतिशत घट रहा है। भारत का प्रतिनिधित्व ऐसे लोगों के हाथों में है जिनके बदन भले ही मंहगी सिल्क के कपड़ों से ढ़के हैं, और उनकी सूरत समृद्ध भारत की चमक तो देती है, पर सीरत से वे ऐसे भारत का निर्माण कर रहे हैं जो बाजार है और यहां पर वही जीवित बचेगा, जिसके पास पैसे हैं चाहे वह हसन अली हो या गांधी परिवार।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी
(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं।)

Sunday, March 27, 2011

उजली सूरतों का सच

पिछले दिनों विकीलीक्स द्वारा किये गए दो खुलासों ने भारतीयों को चिंता में डाल दिया है, इनमें एक खुलासा तो भारत के गृहमंत्री श्री पी चिदंबरम का अमरीकी राजदूत टिमोथी रोमर के मध्य हुई बातचीत का है, जिसमें पी चिदंबरम ने रोमर को कहा कि ’अगर भारत में पश्चिमी और दक्षिणी भाग ही होते तो भारत और ज्यादा समृद्ध होता‘। जिसका सीधा सा मतलब यह है कि हमारे गृह मंत्री भारत के अन्य भागों को पश्चिमी और दक्षिणी राज्यों पर भार समझते हैं और वे संविधान की मूल भावना के अनुसार भारत की ’एकता और अखण्ड़ता को बनाए रखने की शपथ’ में कोई यकीन ही नहीं रखते, और विकास और समृद्धी के नाम पर ही सही यदि भारत को विभाजित किया जाए तो उन्हैं कोई आपत्ति नहीं है।
और दूसरा खुलासा राज्य सभा में विपक्ष के नेता श्री अरूण जेतली की अमरीकी राजनायिक राबर्ट ब्लैक से हुई बातचीत है, जिसमें जेतली ने ब्लैक से कहा कि ’भारतीय जनता पार्टी के लिए हिन्दू राष्ट्रवाद एक अवसरवादी मुद्दा है। ‘जेतली का यह कहना दो संदेहों को जन्म देता है कि या तो जेतली, आज भी भारतीय जनता पार्टी के जन्म और उसके विकास यात्रा के सिद्धांत से अनभिज्ञ हैं या वे भारतीय जनता पार्टी को, उसके मातृ संगठनों को, उसके विचारों, सिद्धांतों और लाखों कार्यकर्ताओं को अपना गिरमिटिया मजदूर समझते हैं, जो उनकी कही हर बात का समर्थन करने को मजबूर हैं।
ये दोनों ही नेता भारतीय राजनीति में संभावना वाले राजनीतिज्ञ माने जाते हैं और दोनो ही नेताओं के लिए उनके दलों में यह माना जाता है कि वे भारत के प्रधानमंत्री होने की योग्यता रखते हैं। इसीलिए दोनों ही दल उन्हैं महत्व देते आये हैं और अपने दलों में प्राप्त इस महत्व के कारण ही उनका विदेशी राजनायिकों से मिलना जुलना लगा रहता है। जिससे वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को बना सकें। बंद कमरों में हुई इस बातचीत के सार्वजनिक हो जाने से इन दोनों ही नेताओं की ’ योग्यता‘ और सोच सामने आ गई है। इस पूरे प्रकरण का सबसे गंभीर पहलु यह है कि दोनों ही राजनेता भारत के दो प्रमुख दलों का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनकी इन बातों का उनके दलों के नीति और सिद्धांतों से मेल नहीं खाते।
पहला प्रश्न तो गृह मंत्री चिदंबरम से यह ही है कि क्या वे मानते हैं कि भारत में विभाजन की अभी और भी संभावनाएं हैं? और दूसरा यह कि उनके लिए भारत का मतलब क्या है? और यह भी कि उनके लिए देश का कौनसा हिस्सा भारत है? और उत्तर और पूर्वोत्तर भारत को और वहां के मतदाताओं को वे क्या मानते हैं? और यदि वे भारत के वर्तमान सांगठनिक स्वरूप को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, तो फिर वे असम से राज्यसभा में आनेवाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मंत्रीमंडल में मंत्री ही क्यों हैं? और आखिर ऐसी कौनसी मजबूरी है, जिसके चलते उत्तर प्रदेश से चुनकर आनेवाले सोनिया गांधी और राहुल गांधी से निर्देशित हो रहे हैं? इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि सरदार पटेल की विरासत एक ऐसा ’पढ़ा लिखा और विद्वान’ वकील संभाल रहा है, जिसको ना तो भारत की सांस्कृतिक विरासत की समझ है और ना ही उन्हें भारत की एकात्मता से ही कोई लेना देना है ।
क्या चिदंबरम को यह याद दिलाना पडे़गा कि दक्षिण भारत से ही आने वाले शंकर ने भारतवर्ष की संस्कृति, चेतना, और एकात्मता को देखते हुए पूरे भारत में चार शंकर पीठों की स्थापना कर वेदों को पुनर्स्थापित किया था, जिसके कारण उन्हैं आदिगुरू शंकराचार्य की उपाधि से विभूषित किया गया। क्या चिदंबरम को यह भी याद दिलाने की आवश्यकता है कि आज वे जिस मंत्रालय को संभाल रहे हैं, उस मंत्रालय को आजाद भारत में सरदार पटेल ने सबसे पहले संभाला था और उन्होंने अंग्रेजों की कूटनीति के उलट रियासतों में बंटे भारत को एक मजबूत गणतांत्रिक देश के रूप में विश्व पटल पर खड़ा कर दिया। बस एक ही जगह वे उस समय के चिदंबरम जैसे ’पढे़ लिखे और विद्वान’ राजनेता पं. जवाहर लाल नेहरू की बातों में आ गये और जम्मू कश्मीर रियासत के विलय का मामला उन्होंने पं. नेहरू पर छोड़ दिया।
और आज आजादी के 62 सालों के बाद भी जम्मू कश्मीर हमारे लिए एक समस्या बना हुआ है और अब तक हम उस पर एक लाख करोड़ रूपये से ज्यादा खर्च कर चुके हैं, इसके अलावा कितने ही सैनिक, जवान और नागरिक इसको भारत में बनाए रखने के लिए शहीद हुए हैं इसका जवाब गृहमंत्री श्री चिदंबरम के पास भी नहीं होगा।
चिदंबरम का यह विचार इसलिए भी भारत के प्रति देशद्रोह की श्रेणी में आता है कि जो व्यक्ति भारत के गृह मंत्री के रूप में काम कर रहा है, उसकी व्यक्तिगत सोच इस प्रकार की है। यह निर्णय कांग्रेस पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं को करना है कि वे चिदंबरम जैसे स्तरहीन और पृथकतावादी सोच के व्यक्ति को और कितने दिन तक ढ़ोते हैं। रहा, भारत की जनता का सवाल, वो तो चिदंबरम जैसे लोगों को चुनकर गलती कर चुकी है लेकिन वक्त आने पर इस गलती को वह सुधार भी सकती है।
दूसरी ओर राज्यसभा मे विपक्ष के नेता श्री अरूण जेतली हैं, जिन्होंने अपनी बातचीत में भारत की हिन्दू राष्ट्रवाद की चिंतन परंपरा को ही खारिज कर दिया है । क्या जेतली को यह याद दिलाने की जरूरत है कि भारतीय जनता पार्टी का जन्म ही हिन्दू राष्ट्रवाद के सिद्धांत और दोहरी सदस्यता के सवाल पर हुआ है। और क्या वे यह भी साबित करना चाहते हैं कि वे राष्ट्रवाद की राजनीति के ऐसे मुकाम पर पहुंच चुके हैं, जहां पर उनके बिना राष्ट्रवादी राजनीति एक कदम भी नहीं चल सकती। क्या अरूण जेतली यह कहने की ताकत रखते हैं कि वे अपने इस विचार पर मरते दम तक कायम हैं और इस मुद्दे पर होने वाले चुनावों में नगरपालिका चुनाव भी जीत सकते हैं, आम चुनावों की बात तो बहुत दूर की रही। अरूण जेतली का ’ज्ञान और विद्वता’ उनके पेशे के लिए भले ही सार्थक हो परन्तु राष्ट्रवादी राजनीति के लिए उनका यह ’ज्ञान’ मानसिक विक्षिप्तता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जो लोग भारतीय जनता पार्टी की राजनीति करते हैं, उन्हैं बलराज मधोक का उदाहरण याद रखना चाहिये, जो लोकप्रियता के शिखर पर होने के बावजूद इसलिये हाशिये पर डाल दिये गए, क्योंकि उन्होंने अपने आप को जनसंघ द्वारा स्थापित राजनीतिक सिद्धांत से उपर मान लिया था।
भारत के गृह मंत्री पी चिदंबरम और राज्य सभा में विपक्ष के नेता अरूण जेतली की अमरीकी राजनायिकों के साथ हुई बातचीत के खुलासे तो कम से कम यह ही साबित करते हैं कि देश की बागडोर ईमानदार राजनेताओं के हाथों में नहीं अपितु ऐसे नेताओं के हाथों में हैं, जो राजनीति में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए अपने देश के संविधान और कार्यकर्ताओं के अभिमान को किसी भी विदेशी ताकतों के आगे बेच सकते हैं। तो जब प्रश्न देश की अस्मिता का हो तो व्यक्ति का ज्ञान और विद्वता नहीं देखी जाती, सिर्फ यह देखा जाता है कि वह व्यक्ति अपने आप को देश के साथ कितना एकात्म कर पाया है और उसके मन में अपने देश और उसके संस्कारों के प्रति वो श्रद्धा है भी या नहीं जो प्राथमिक विद्यालय के प्रांगण में सिखाई जाती है।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी
लेखक सेंटर फॉर मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं।

Tuesday, March 15, 2011

क्या मनमोहन सिंह भारत के प्रधानमंत्री हैं ?

जब जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दिखते हैं तो उनकी भाव भंगिमा देखकर एक ही प्रश्न परेशान करता है कि क्या मनमोहन सिंह अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, चीन के राष्ट्रपति हू जिन्ताओ या फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस जरकोजी या रूसी राष्ट्रपति दिमित्र मेदेवदेव या इंग्लैंड के प्रधानमंत्री डेविड केमरुन जितने असरदार और चमकदार राजनेता हैं? और क्या विनम्र और धीमी आवाज वाले विद्वान मनमोहन सिंह कहीं से भी पूरे विश्व को और भारत के नागरिकों को भारत का प्रधानमंत्री होने का आभास दे पा रहे हैं हैं

प्रश्न यह भी है कि क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश के स्वाभिमान का उत्कट और चमकता हुआ चेहरा हैं, और उसी तरह पूरे विश्व में भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं जैसा कि पूर्व में नेहरू, इंदिरा, राजीव, नरसिंहराव, चंद्रशेखर या अटलबिहारी वाजपेयी करते थे या मनमोहन सिंह किसी राज्य सरकार के मुख्य सचिव या ऐसे ही किसी नौकरशाह की तरह दिखते हैं, जिसकी जिम्मेदारी अपने बॉस के आदेशों को पूरा करने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। चाहे देश की आवाज कुछ भी हो और बॉस कितना ही पथभ्रष्ट क्यों ना हो?

तो यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठ खड़ा होता है कि भारत का प्रधानमंत्री कैसा होना चाहिये? क्या हमें ऐसा प्रधानमंत्री चाहिये जो एक बार भी लोकसभा से चुनकर नहीं आया हो, और ना ही लोकसभा चुनाव लड़कर सदन में आने की इच्छा रखता हो। और यह भी कि वह व्यक्ति भारत के नागरिकों द्वारा चुनी गई लोकसभा का कभी सदस्य ही नहीं रहा और प्रधानमंत्री बनने के बावजूद उसने कभी लोकसभा में जाने और उसका नेतृत्व करने की चुनौती को स्वीकार नहीं किया। यह प्रश्न उस व्यक्ति के लिए आश्चर्यजनक लग सकता है जो विगत 7 सालों से देश के प्रधानमंत्री के रूप में काम कर रहा हो, और जरा यह भी सोचने की बात यह भी है कि इन 7 सालों में उस प्रधानमंत्री से जनता से सीधे संवाद के लिए कितनी जनसभाओं को संबोधित किया है?

क्या संविधान के निर्माताओं ने इसी दिन के लिए राज्यसभा की रचना की थी कि देश की बागडोर संभालने वाला व्यक्ति लोकसभा में आने के लिए निर्धारित चुनाव प्रक्रिया का पालन नहीं करे और संविधान में प्रदत्त इस छूट का इस्तेमाल पद पर बने रहने के लिए करे? यदि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी जगह सही हैं तो फिर प्रश्न यह भी उठता है कि नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक जितने भी प्रधानमंत्री इस देश में हुए हैं, उन्होंने लोकसभा का चुनाव ही क्यों लड़ा? क्या उनके लिए राज्यसभा में निर्वाचित होना दुरूह कार्य था?

1991 में नरसिंहराव मंत्री मंडल में वित्त मंत्री के रूप में शामिल हुए मनमोहन सिंह ने राज्यसभा के जरिये देश की सर्वोच्च नियामक संस्था संसद में प्रवेश किया। उनका पहला कार्यकाल 4 वर्ष के लिए था। उसके बाद से लेकर आज तक वे 3 बार संसद में पहुंचते रहे हैं और हर बार वे जनता द्वारा चुने जाने की अपेक्षा पार्टी के प्रतिनिधि बनकर राज्यसभा में ही पहुंचते हैं। तो क्या ये माना जाना चाहिये कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जवाबदेही देश की जनता के प्रति नहीं अपितु पार्टी के पदाधिकारियों के प्रति है, जो उनका राज्यसभा में जाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। क्या यह प्रश्न भी नहीं पूछा जाना चाहिये कि हमारे प्रधानमंत्री लोकसभा चुनावों से क्यों कतराते हैं? 1991 से लेकर आज तक 4 बार आम चुनाव हो चुके हैं और 1998 के लोकसभा चुनावों में नई दिल्ली से चुनाव लड़ने (जिसमें वे पराजित हो गये थे) के अलावा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कभी कोई और चुनाव लड़ने का प्रयास ही नहीं किया।

बात सिर्फ राजनीतिक व्यवस्था के तहत एक पद को भरे जाने की नहीं है। यह प्रश्न सांस्कुतिक और भाषाई विविधता वाले दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र के नेतृत्व का है। यदि पद ही भरना होता तो सोनिया गांधी भी भर सकती थीं, लेकिन उनका विरोध राजनीतिक दलों ने इस आधार पर किया कि वे सम्पूर्ण विश्व में भारत का चेहरा नहीं हो सकती ? वे स्व0 राजीव गांधी की पत्नी हो सकती हैं लेकिन इंदिरा नहीं हो सकती। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भले ही ईमानदार और बुद्धिमान व्यक्ति की तरह जाने जाते हैं लेकिन वे भारत के गौरवशाली अतीत और उसके आत्म स्वाभिमान को प्रकट नहीं करते। उनकी छवि एक ऐसे प्रशासक के रूप में उभरकर सामने रही है जो बेबस और बेचारा है। जिसका इकबाल ना तो उसके मंत्री मंडलीय सहयोगी ही मानते हैं और ना ही उनका राजनीतिक दल। वे तो एक ऐसे बडे बाबू की तरह दिख रहे हैं जिनकी नाक के नीचे 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला हो जाता है, और वे कुछ नहीं कर पाते। एक मंत्री क्रिकेट मैच में अपनी हिस्सेदारी तय करता है और उन्हैं पता नहीं चलता, एक मंत्री अपनी गलत नीतियों के कारण महंगाई को बढ़ाकर मुनाफाखोरी को बढ़ावा दे रहा है और वे बेबस हैं। पूरा देश चीख चीख कर भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ सड़कों पर रहा है और वे मुख्य सतर्कता आयुक्त के पद पर भ्रष्ट आचरण के दोषी व्यक्ति कोअज्ञानवश नियुक्त कर देते हैं।

वे पाकिस्तान के साथ परदे के पीछे ना जाने क्या बात करते हैं जिसका पता मंत्री मंडलीय सहयोगियों को भी नहीं होता है, विपक्ष की बात तो बहुत दूर की रही। वे कहने को तो सरकारी खजाने से एक रूपये का वेतन लेते हैं लेकिन उन्हीं के नेतृत्व में चल रही सरकार की अनियमितताओं पर वे कोई जवाब दे नहीं पाते।

इसलिये जब हम सांस्कृतिक और भाषाई विविधता और विशाल लोकतंत्र वाले भारत के नेतृत्व की बात करते हैं तो निश्चित ही सरदार मनमोहन सिंह बौने नजर आते हैं। स्वतंत्र भारत में इतना कमजोर प्रधानमंत्री कार्यालय उस समय भी नहीं हुआ, जब गुलजारी लाल नंदा, एच डी देवगौडा या इंद्र कुमार गुजराल मजबूरी में प्रधानमंत्री बनाए गए थे। हो सकता है कि मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बने रहने की कोई मजबूरी हो, यह भी संभव है कि उनकी पार्टी के नेताओं के पास मनमोहन सिंह से ज्यादा योग्य व्यक्ति इस पद के लिए ना हो, लेकिन भारत की 118 करोड़ की जनता ऐसे किसी भी व्यक्ति को प्रधानमंत्री के पद नहीं देखना चाहती जो बेबस और लाचार हो तथा उसको अपने हर कार्य की मंजूरी लेने के लिए एक नौकरशाह की तरह भाग दौड़ करनी पड़ती हो और वो जनता के प्रति अपनी जवाबदेही समझने की बजाय अपने बॉस के प्रति निष्ठां रखता हो .

सुरेन्द्र चतुर्वेदी

(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं)