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Saturday, June 25, 2011

भयभीत कांग्रेस और लोकपाल


बाबा रामदेव के हरिद्वार लौट जाने और अन्ना हजारे के दिल्ली आ जाने के बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता के संघर्ष को एक नया सेनापति मिल गया है। इस बार केन्द्र सरकार के सामने दुनियादारी से दूर रहने वाला बाबा रामदेव नहीं है। अबकी बार उसका मुकाबला अपने आप को दांव पर लगाने वाले अन्ना हजारे, अरविन्द केजरीवाल, श्रीमती किरण बेदी जैसे हजारों लोगो से है, जो ना केवल राजनेताओं के असली चरित्र से परिचित हैं, अपितु यह भी जानते हैं कि सरकार मीडिया और सत्ता का उपयोग कर किस तरह से समर्थकों और भारत की आम जनता को भ्रमित करने में कुशल हैं। इससे यह भी साबित होता है कि सरकार कितना भी दमन कर ले] एक के बाद एक लोग आंदोलन का नेतृत्व करने के लिये सामने आते रहेंगें।

यह भी आश्चर्यजनक है कि केन्द्र सरकार इस बात के लिये तो राजी है कि ग्रामसेवक से लेकर संयुक्त सचिव तक के कर्मचारी और अधिकारी लोकपाल के दायरे में आयें, लेकिन वह उन लोगों को लोकपाल से दूर रखना चाहती है, जो नीति निर्माण के लिए उत्तरदायी हैं और वे ही भ्रष्टाचार के पोषक होने के लिए भी जिम्मेदार हैं। सरकार का यह रूख भारत के आम आदमी को ना केवल भ्रष्ट साबित कर रहा है, अपितु यह भी कह रहा है कि भारत का आम आदमी भ्रष्ट है। भारत के नागरिकों को इससे बड़ा अपमान किसी सरकार ने नहीं किया होगा।

इसी क्रम में आजकल सरकारी पक्ष एक नई कहानी को हवा दे रहा है, कहा जा रहा है कि भारत में भ्रष्टाचार मुद्दा ही नहीं है, और भारत का समाज तो भ्रष्टाचार को हमेशा से ही स्वीकार करता रहा है और भारत में निवास करने वाले संत महात्माओं के मठ और पीठ अवैध कमाई को संरक्षित करने का ठिकाना बन गये हैं। इसलिये केन्द्र सरकार का यह प्राथमिक कर्तव्य है कि वह भ्रष्टाचार का ठिकाना बने इन केन्द्रों को ढ़ूंढ़ ढ़ूंढ़ कर नष्ट कर दे। ये सब बातें देश के सत्ताधारी राजनेताओं की तरफ से तब से कही जाने लगी है, जब से बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार को घेरा और विगत ४-५ जून की रात्रि को केन्द्र सरकार ने बाबा रामदेव और उनके समर्थकों को मार मार कर नई दिल्ली के रामलीला मैदान से भगा दिया और उस पर यह भी कि प्रधानमंत्री कहते हैं कि इसके अलावा और कोई चारा ही नहीं बचा था।

ध्यान देने लायक बात है कि ये बातें आम जनता की नहीं हैं, ये बातें उन लोगों की तरफ से आईं हैं, जिनसे देश की जनता ने उनकी अकूत कमाई का राज पूछा है और इतना कुछ सहने के बाद भी देश की जनता यह जानना चाहती है कि गोरे अंग्रेजों से सत्ता प्राप्त कर लेने के बाद जिन भी नेताओं ने सत्ता का उपभोग किया है, वो भारत के नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं दिला पाने में क्यों विफल रहे ? कैसे भारत का सर्वांगीण विकास कुछ मुट्ठी भर लोगों के विकास में कैद हो गया ? कैसे कुछ भ्रष्ट लोगों ने सत्ता प्रतिष्ठान पर कब्जा करके अपनी तिजोरियों का ना केवल भर लिया अपितु उसे विदेशी बैंकों में भी जमा करा दिया। तो फिर यह क्यों नहीं यह माना जाय कि देश आज भी आजादी को तरस रहा है, और अबकि बार संग्राम गोरों से नहीं सत्ता को धंधा बना चुके लालची राजनेताओं से है।

आज जब भारत का प्रत्येक राजनीतिक दल सत्ता का उपभोग कर चुका है, भारत की आम जनता इस मुद्दे पर राजनितिक समर्थन को लेकर असमंजस में है, आम जनता का विश्वास भी राजनीतिक दलों से उठ गया है, इसीलिये सामाजिक कार्यकर्त्ता और देश के प्रमुख संत चाहे वो बाबा रामदेव हो या श्री श्री रविशंकर अपने समर्थकों के साथ सड़कों पर भ्रष्टाचार के दानव से मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे हैं। परन्तु राजसत्ता, भारत के सामान्य नागरिकों के इस आंदोलन को राजनीतिक बताने का दुस्साहस कर रही है। क्या भ्रष्टाचार कुछ दलों की ही समस्या है ? इसके कारण देश की आंतरिक सुरक्षा खतरे में नहीं पड़ गई है ?

इस बात पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि केन्द्र सरकार हर प्रकार से उन सभी लोगों को पथभ्रष्ट साबित करने की हिमाकत कर रही है, जो लोग केन्द्र सरकार से भ्रष्टाचार पर स्पष्ट नीति बनाने की बात कर रहे हैं, और विदेशों में जमा पैसे को वापस लाने की मांग को पूरा करने की जिद पर अड़े हुए हैं। इसी के साथ सत्ता द्वारा उन प्रतीक चिन्हों पर भी लगातार आक्रमण हो रहे हैं, जिनके बारे में सरकार को यह अंदेशा है कि वो जनता के सामने आस्था का केन्द्र हैं। चाहे वह सत्यसाई बाबा के निधन के बाद उनके आश्रम की संपत्ति हो या बाबा रामदेव के ट्रस्ट की संपत्ति का मामला हो या अन्ना हजारे की नैतिकता का प्रश्न ? सरकार का हर कदम रोज़ एक नए संदेह को जन्म दे रहा है। सरकार की मंशा भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के नेताओ को बदनाम करने की है, उसका हर कदम हर बार इस बात को सिद्ध करता है कि सरकार हर उस आदमी की आवाज को दबा देने की मंशा रखती है, जिस आवाज में सरकार से जवाब मांगने की बुलंदी हो।

आश्चर्यजनक तो यह है कि केन्द्र सरकार जितनी दृड़ संकल्पित इन आंदोलनों को कुचलने के लिये दिखती है, उसका उतना दृड़ संकल्प भ्रष्टाचार निरोध के उपाय करने में नहीं दिखता। राजनीतिक समीक्षक यह मानने लगे हैं कि सरकार लोकतंत्र को मजबूत करने की बजाय उसका इस्तेमाल रक्षाकवच के रूप में कर रही है। यह याद रखे जाने की जरूरत है कि लोकतंत्र की नींव ही ‘असहमति के आदर व सम्मान’ पर टिकी है और जिस प्रकार से सरकार, सामाजिक कार्यकर्ताओं और संस्थाओं को अपना व्यक्तिगत दुश्मन मानने लगी है, उससे यह प्रमाणित होने लगा है कि सरकार की नीयत में खोट है और अब तो जनता का यह विश्वास और ज्यादा गहरा हो गया है कि सरकार ‘अपने संरक्षणकर्ताओं’ को बचाने के लिए अपनी संवैधानिक ताकत का ठीक उसी प्रकार से दुरूपयोग कर रही है, जैसी कि ब्रिटिश शासन काल में महारानी विक्टोरिया के सैनिक करते थे।

यह भी आश्चर्यजनक है कि देश ही नहीं विदेश के सभी प्रबुद्धजन आज भी प्रधानमंत्री को बेईमान नहीं मानते। हां, वे देश के वर्तमान हालातों में प्रधानमंत्री की विवेकहीनता और अनिर्णय की स्थिति से निराश जरूर हैं। तो, ऐसी स्थिति में कांग्रेस को प्रस्तावित लोकपाल बिल से क्या आपत्ति हो सकती है ? दुर्भाग्यजनक स्थिति तो यह है कि कांग्रेस भी मनमोहन सिंह को भारत के प्रधानमंत्री की बजाय एक ऐसे सेवक के रूप में देखती है, जो श्रीमति सोनिया गांधी के प्रति वफादार है। तो हमें यह समझने की जरूरत है कि एक ओर जहाँ देश की आम जनता लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री सहित सर्वोच्च नौकरशाही को लेने के लिए आंदोलनरत है, वहीं कांग्रेसी आज भी श्रीमती सोनिया गांधी, राहुल गांधी या प्रियंका को प्रधानमंत्री बनते हुए देखना चाहते हैं । इसीलिये कांग्रेस को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लोकपाल के दायरे में लाने में कोई एतराज नहीं है, दिक्कत तो तब है जब गाँधी परिवार का कोई सदस्य इस देश का प्रधानमंत्री बनेगा. इसके अलावा कांग्रेस को एक भय भी सता रहा है कि प्रधानमंत्री के लोकपाल के दायरे में आ जाने के बाद कांग्रेस के अस्तित्व पर ही संकट आ जायेगा, क्योंकि कांग्रेस में ईमानदारी और ईमानदार नेताओं का संकट है।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी

(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं)

Tuesday, June 7, 2011

प्रधानमंत्री जवाब दो


बाबा रामदेव के सत्याग्रह के दौरान 4-5 जून की रात्री में केन्द्र सरकार के इशारे पर जो कुछ हुआ, उसे देश ही नहीं पूरी दुनिया के लोगों ने देखा। सभी जानना चाहते हैं कि जितने भी लोग बाबा रामदेव के साथ अनशन पर बैठे थे, वे क्या चाहते थे? वे सिर्फ इतना चाहते कि केन्द्र सरकार एक अध्यादेश लाए जिसमें कहा जाए कि “विदेशो जमा कालाधन राष्ट्रीय संपत्ति है और केन्द्र सरकार उसको वापस लाने के लिए वचनबद्ध है।”
यह मांग किसी राजनीतिक दल की नहीं है, यह मांग उन करोड़ों भारतीय की है, जो अपने खून पसीने की कमाई को विभिन्न कर के रूप में भारत सरकार को इसलिये देते हैं कि वे जिस देश में रहते हैं, उस देश का समग्र विकास हो, हर हाथ को काम मिले, बच्चों को शिक्षा मिले, गांवों में आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध हो, हर खेत को पानी मिले, जिससे यह देश फिर गुलामी के दलदल में नहीं फंसे और भारत स्वाभिमान के साथ फिर से उठ खड़ा हो।
प्रश्न यह उठता है कि क्या यह मांग गलत है? क्या भारत के नागरिकों को चाहे वे करदाता हों या ना हों, उन्हैं यह अधिकार नहीं है कि वे देश के विकास की मांग करें, वे सरकार से स्वच्छ प्रशासन की अपेक्षा करें । वे देश की उस समस्या से मुक्ति की इच्छा भी व्यक्त करें जिससे आम आदमी त्रस्त और परेशान है। क्या यह मांगें राजनीतिक हैं? जो लोग वहां इकटठा हुए थे, वे अपने लिए आरक्षण नहीं मांग रहे थे, ना ही यह कह रहे थे कि भारत में आतंक फैलाने के अपराध में फांसी की सजा पाए अफजल गुरू और मोहम्मद कसाब को तत्काल फांसी दी जाए, ना ही उन्होंने किसी राजनीतिक व्यक्ति का नाम अपने मंच से लिया था और ना ही उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मंत्रीमंडल में शामिल मंत्रियों के इस्तीफे की मांग की थी। तो फिर ऐसा कौनसा कारण था कि केन्द्र सरकार ने पांडाल में सोये हुए लोगों पर आक्रमण बोल दिया, उन पर आंसू गैस के गोले छोड़े, हवाई फायर किये, मंच को आग लगाकर अफरा तफरी का माहौल बना दिया ? वृद्धों, महिलाओं और बच्चों पर ना केवल लाठियां भांजी अपितु उनके साथ जानवरों जैसा व्यवहार करते हुए घसीट घसीट कर बाहर निकाला।
आखिर कैसे हमारे लाचार और बेचारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जिनको यह पता ही नहीं चलता कि उनकी सरकार में कितने मंत्रयिों ने कितना भ्रष्टाचार कर लिया, उनमें अचानक इतनी ताकत आ जाती है कि वे कहने लगे कि इस कार्यवाही के अलावा उनकी सरकार के पास और कोई विकल्प ही नहीं बचा था। भारत के हर नागरिक को प्रधानमंत्री से यह प्रश्न पूछना चाहिये कि वे किनको बचाना चाह रहे हैं? और जो लोग 4-5 जून की रात को पांडाल में थे, क्या उन्होंने दिल्ली के एक भी नागरिक के साथ अभद्रता की थी? पुलिस या प्रशासन के साथ असहयोग किया था? क्या बाबा रामदेव के आव्हान पर भारत भर से जो लोग वहां पर आये थे, वे छंटे हुए गुंडे और बदमाश थे? क्या उनके पास प्राण घातक हथियार थे ?
क्या वे स्थानीय नागरिकों के लिए खतरा बन गये थे? यदि ऐसा नहीं था, तो इस बर्बर कार्यवाही का सरकार के पास क्या जवाब है? क्या सरकार यह भूल चुकी है कि 15 अगस्त 1947 की मध्य रात्री को भारत एक लोकतांत्रकि देश के रूप में दुनिया के सामने आ चुका है। भारत में रहने वाले लोगों के कुछ नागरिक अधिकार भी हैं? जिनकी रक्षा के लिए हर लोकतांत्रकि सरकार जिम्मेदार है? क्या जिस कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने शिक्षा प्राप्त की है, वहां उन्हें यही सिखाया और पढ़ाया गया था कि निर्दोष नागरिकों और अपने संवैधानिक अधिकार के लिए लड़ने वाले लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाए। क्या प्रधानमंत्री के जन्मदाताओं ने उनकी हर मांग का जवाब इसी अंदाज में दिया था, जैसा कि उनकी सरकार ने भारत के नागरिकों के साथ किया? प्रश्न बहुत सारे हैं।
सवाल यह भी है कि यह सरकार भारत के नागरिकों को किस रूप में देखती है, और जिन मतदाताओं के मतों पर जीतकर सत्ता प्राप्त करती है, उनके साथ किस तरह का व्यवहार करती है। क्यों भारत के राजनेता हर मुद्दे का राजनीतिकरण कर देते हैं? क्या भ्रष्टाचार सिर्फ राजनीतिक दलों का विषय है, इस पर भारत की जनता को बोलने का कोई अधिकार ही नहीं है, जो भ्रष्टाचार से आकंठ पीड़ित है? स्वतंत्र भारत में देश की आजादी के बाद भ्रष्टाचार के कई मामले सामने आये, परंतु किसी भी सरकार ने कभी भी यह साबित करने की कोशिश नहीं की कि वह किसी भी तरह के भ्रष्टाचार को लेकर असहनशील है।
सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक तो यह है कि सत्तारूढ़ दल के पदाधिकारी या सरकार के मंत्रियो ने एक बार भी देश की जनता से अपने कुकृत्य के लिए माफी नहीं मांगी? और बजाय ए राजा, कनीमोझी, सुरेश कलमाडी, सोनिया गांधी, शरद पवार और अजीत चव्हाण से यह पूछने के कि उनकी अकूत संपत्ति कहां से आई है, वे बाबा रामदेव से यह पूछ रहे हैं कि इस सत्याग्रह को करने के लिए पैसा कहां से आ रहा है? और बाबा रामदेव के सहयोगी आचार्य बालकृष्ण को नेपाली नागरिक बताने वाले कांग्रेस के प्रवक्ता यह क्यों भूल जाते हैं कि उनकी पार्टी की अध्यक्ष भी भारतीय नहीं है। और जो दिग्विजय सिंह बाबा रामदेव को महाठग बता रहे हैं, उन्हें यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि केंद्र सरकार के ४ मंत्री इस ठग से क्यों बात करने गए थे ?
यह तथ्य भी गौर करने लायक है कि जब से बाबा रामदेव ने सोनिया गांधी और मनमोहन सरकार पर उनको जान से मार डालने के षड़यंत्र रचने का आरोप लगाया है,और उन्हैं कुछ भी होने के लिए सोनिया गांधी को जिम्मेदार बताया है, तब से पूरी कांग्रेस पार्टी बजाय देश से माफी मांगने के सोनिया गांधी के बचाव में उतर आई है, और कांग्रेस के महामंत्री जनार्दन दिवेदी का यह कहना कि ‘‘सत्याग्रही मौत से बचने के लिए महिलाओं के कपडे पहनकर भागता नहीं है।’’ बाबा रामदेव के इस आरोप को पुष्ट ही करता है कि सरकार ने उनको मारने का षड़यंत्र रचा था।
लेकिन सरकार और कांग्रेस को इतिहास को एक बार खंगाल लेना चाहिये। उन्हैं यह याद रखना चाहिये कि भारत के नागरिकों का आत्मबल बहुत मजबूत है। जो भारत 1200 साल की गुलामी सहने के बाद भी अपना अस्तित्व बचाये रख सकता है। इंदिरा गांधी के कठोर आपातकाल को झेल सकता है, वह सत्ताधीशो की दमनकारी मानसिकता से डरने वाला नहीं है। राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री स्व0 जयनारायण व्यास द्वारा आज से 60 साल पहले लिखी गई यह कविता उन सभी लोगों के लिए प्रेरणा और चेतावनी हैं जो नागरिकों को सम्मान की निगाह से नहीं देखते।
‘‘ भूखे की सूखी हडडी से,
वज्र बनेगा महाभयंकर,
ऋषि दधिची को इर्ष्या होगी,
नेत्र तीसरा खोलेंगे शंकर,
जी भर आज सता ले मुझको,
आज तुझे पूरी आजादी,
पर तेरे इन कर्मो में छिपकर,
बैठी है तेरी बरबादी,
कल ही तुझ पर गाज गिरेगा,
महल गिरेगा, राज गिरेगा,
नहीं रहेगी सत्ता तेरी,
बस्ती तो आबाद रहेगी,
जालिम तेरे इन जुल्मों की,
उनमें कायम याद रहेगी।
अन्न नहीं है, वस्त्र नहीं है,
और नहीं है हिम्मत भारी,
पर मेरे इस अधमुए तन में
दबी हुई है इक चिंगारी
जिस दिन प्रकटेगी चिंगारी
जल जायेगी दुनिया सारी
नहीं रहेगी सत्ता तेरी,
बस्ती तो आबाद रहेगी,
जालिम तेरे इन जुल्मों की,
उनमें कायम याद रहेगी।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी
(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं)