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Thursday, April 28, 2011

हे ! भारत तुम कहाँ हो !


क्या भारत सिर्फ एक बाजार है ? जहां पर खरीदने और बेचने वाले लोगों का बोलबाला है और क्या यहां सिर्फ पैसा ही पूजा जाता है ? और चूंकि बाजार का उद्देश्य मुनाफा कमाना होता है इसलिये वह किसी भी नियम, नीति और अनीति को नहीं मानता। इसलिये वहां की राज्यसत्ता को देश के आत्मिक संस्कार नहीं बाजार के दलाल संचालित करते हैं। या भारत का कोई सांस्कृतिक अतीत भी है, जो भारत की विद्वता, संस्कार, आत्मिक चेतना, आध्यात्मिक उर्जा और उन सबसे अलग जीवन दर्शन के लिए विश्व में विख्यात था, लेकिन हमारे शासकों की अकर्मण्यता ने भारत के चैतन्यमयी और संस्कारी स्वरूप को नष्ट कर एक बाजार बना दिया।

आश्चर्य तो तब होता है जब देश के राजनेता विदेशों में जाकर अपने देश के संस्कारों की बात नहीं करते, अपने देश की उर्जा और उसकी ताकत की बात नहीं करते, हमारे उच्च मानवीय मूल्यों की बात नहीं करते,अपितु वे बात करते हैं तो ये बताते हैं कि वे कहां और क्या बेच सकते हैं या वे कितना बिक चुके हैं और कितना बिकना बाकी हैं। वे अपने देश को बाजार बनाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। और यही मानसिकता है जो भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार को संरक्षित और पल्लवित करती है।

भारत में जैसे जैसे भ्रष्टाचार का मुद्दा गर्माता जा रहा है,राजनेताओं की छिछालेदार सामने आ रही है, आश्चर्य तो तब होता है जब भारत की राजनीति के प्रेम चौपड़ा कांग्रेस महामंत्री दिग्विजय सिंह हर उस व्यक्ति के कपडे उतारने लग जाते हैं , जो भी भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपनी आवाज उठाता है और पूरी कांग्रेस पार्टी में एक भी ऐसा नेता नहीं है जो उनसे कहे कि वे अपना अर्नगल प्रलाप बंद करें। तो क्या यह नहीं माना जाना चाहिये कि दिग्विजय सिंह 10, जनपथ के इशारे पर ये सब हरकतें कर रहे हैं। समझ में नहीं आता कि वे किसके सामने अपनी निष्ठां दिखाना चाहते हैं. सोनिया गाँधी के प्रति या भारत के प्रति।

भारत की सबसे बड़ी त्रासदी यह रही है कि हम सिर्फ संकटों के समय में ही एकजुटता दिखा पाये हैं। भारत का नागरिक देश के मान अपमान को राजाओं का विषय मानता आया है। इन्हीं कुछ राजाओं के कारण भारत सिकुड़ता चला गया। नोबल पुरूस्कार प्राप्त सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री वी एस नायपाल ने अपनी पुस्तक ’भारत – एक आहत सभ्यता‘ में हमारे राष्ट्रीय चरित्र की व्याख्या करते हुए लिखा है कि ’’कहा जाता है कि सत्रह वर्ष के एक बालक ने नेतृत्व में अरबों ने सिंध के भारतीय राज्य को रौंदा था, उस अरब आक्रमण के बाद से भारत सिमट गया है। अन्य कोई सभ्यता ऐसी नहीं, जिसने बाहरी दुनिया से निपटने के लिए इतनी कम तैयारी रखी हो। कोई अन्य देश इतनी आसानी से हमले और लूटपाट का शिकार नहीं हुआ। शायद ही ऐसा कोई और देश होगा, जिसने अपनी बर्बादियों से इतना कम (सबक) सीखा होगा।‘‘ श्री वी एस नायपाल को साहित्य के लिए 2001 में नोबल पुरूस्कार प्रदान किया गया था। उनके पुरूखे भारत से गिरमिटिया मजदूर की तरह त्रिनिदाद चले गये थे । श्री नायपाल को उनके त्रिनिदाद का नागरिक होने पर गर्व भी है। लेकिन वे अपने पुरूखों की मातृभूमि के रखवालों की मानसिकता से पेरशान हैं। श्री नॉयपाल ने साबित कर दिया कि यही वो कारण है कि हमने अपने मान सम्मान को भारत के मान अपमान से ज्यादा बड़ा समझा ।

आज स्थिती यह है कि हमारे राजनेता, जो कोई भारत के मान सम्मान के लिए बोलता है, उसे सांप्रदायिक कहने और साबित करने में पल भर की भी देरी नहीं लगाते। इसी कारण आज कश्मीर में पाकिस्तान के हौंसले बुलंद है। इसी कारण 15 अगस्त 1947 को प्राप्त बंटे हुए भूभाग में से एक लाख वर्ग किलोमीटर मातृभूमि को पाकिस्तान और चीन दबाये बैठे हैं। इसे समझे जाने की जरूरत है कि आज हम जिस भारत को दुनिया के मानचित्र पर देखते हैं, सिर्फ वही भू भाग भारत नहीं है। वर्तमान ईरान (जिसे पहले आर्यन कहा जाता था ) से लेकर सुमात्रा, बाली इंडोनेशिया तक के द्वीप भारत की विशालता की कहानी कहते हैं। हजार सालों के विदेशी आक्रमण के बाद भारत बंटता चला गया और हमारे देश का राजनीतिक नेतृत्व अपने स्वार्थ और सत्ता के दंभ में भारत को एक नहीं रख पाया और स्थिति आज यहां तक है कि कश्मीर के जिस हिस्से को हम अपने मानचित्र में दर्शाते हैं, वहां भारत की सेना भी नहीं जा सकती, आम भारतीय के जाने की बात तो बहुत दूर है। हमारे शासक उस एक एक इंच मातृभूमि को वापस लाने की बात तक नहीं करते।

आज भी भारत के शासक अपने इस झूठे दंभ और अहंकारी मानसिकता से बाहर नहीं आ पाये हैं। इसी कारण हम तिल तिल कर मारी जा रही मातृभूमि के दैवीय स्वरूप को स्वीकार नहीं करते, अपितु इसे सिर्फ एक बाजार के रूप में ही देखते हैं। प्रश्न उठता है कि यदि भारत एक बाजार है, तो इसके नागरिक क्या हैं ? क्या भारत के नीति नियंताओं को यह भी समझाना पडेगा कि मातृभूमि और मां में बाजार नहीं संस्कार देखे जाते हैं। ये बात तो विदेशी मूल की सोनिया गांधी भी समझती हैं, पर हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, गृह मंत्री पी चिदंबरम, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और उनके भौंपू दिग्विजय सिंह, अभिषेक मनु सिंघवी और मनीष तिवारी को क्यों समझ नहीं आती?

इसका कारण है हमारी तथाकथित शिक्षा। जिसने हमें हमारी अस्मिता से विलग कर दिया है। ब्रिटिश शिक्षा शास्त्री और राजनेता लार्ड मैकाले की भविष्यवाणी सही साबित हुई। आज से लगभग 175 साल पहले भारत का वर्णन करते हुए लार्ड मैकाले ने 2 फरवरी1835 को ब्रिटिश संसद को संबोधित करते हुए कहा था कि ’’ मैंने भारत की सभी जगह देखी हैं, मैंने इस यात्रा के दौरान एक भी ऐसे व्यक्ति को नहीं देखा जो भीख मांगता हो या चोर हो। उनके चरित्र बहुत उज्जवल हैं, वे बहुत योग्य और कर्मठ हैं। यही उनकी संपदा है। मुझे नहीं लगता कि हम इस देश को कभी जीत पायेंगें, जब तक कि हम इस देश के मेरूदण्ड़ को ना तोड़ दें, जो कि इस देश की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक ताकत है। और इसलिये मैं उनके सांस्कृतिक, पुरातन और प्राचीन शिक्षा व्यवस्था को बदलने का प्रस्ताव रखता हूं । यदि भारतीय यह सोचने लग जाएं कि जो विदेशी और इंग्लिश है वह ही अच्छा है, और उनकी संस्कृति से बेहतर है तो वे अपनी आत्मिक उर्जा और अपनी परंपराओं को खो देंगें और तब वे वैसे बन जाएंगें जैसा कि हम चाहते हैं।‘‘

लार्ड मैकाले ने मात्र 175 सालों में वो कर दिखाया जो अनेको हमले और हजारों साल की गुलामी भारत को ना कर सकी। सांस्कृतिक और आत्मिक चेतना से परिपूर्ण भारत की जगह एक बाजार ने ले ली है। विडम्बना यह है कि जिन सपूतों को मां के आंचल की रक्षा करनी चाहिये, वे उसके आंचल को उघाड़ कर उसमें बाजार ढूंढ़ रहे हैं। तो जब बाजार ही मां के आंचल की बोली लगायेगा, तो पड़ोसी के घर भले ही चूल्हा ना जले, पर अपनी शाम रंगीन होगीं हीं और भारतमाता का एक पुत्र दूसरे पुत्र की मदद करने की एवज में रिश्वत मांगें तो उसमें कैसा आश्चर्य? हे भारत तुम कहां हो, जिसकी रक्षा के लिए हमारे पूर्वजों ने जान की बाजी लगा दी थी।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी

लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं।

Saturday, April 16, 2011

जवाब राजनेताओं को देना है

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सहसा यह विश्वास ही नहीं होता कि आजाद भारत के राजनेता किस दुस्साहस के साथ जनता द्वारा उठाये गये मुद्दों को नकारने में लगे हैं। क्या भ्रष्टाचार के समर्थन या विरोध के बारे में भी कोई दो राय भी हो सकती हैं ? यह साफ साफ समझे जाने की आवश्यकता है कि भारत की जनता के लिये ना तो बाबा रामदेव महत्वपूर्ण हैं और ना ही अन्ना हजारे। उसके लिये महत्व इस बात का है कि वह तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार से त्रस्त हो चुकी है और यदि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस मुद्दे पर अपने पद को छोड़कर जनता के आव्हान में शामिल होते हैं तो भारत की जनता उन्हैं भी बाबा रामदेव और अन्ना हजारे की तरह अपनी पलकों पर बिठा लेगी। अब यह तय मनमोहन सिंह को करना है कि उनमें अपनी ईमानदारी को साबित करने का दम है भी या नहीं।
केन्द्र सरकार जिस प्रकार से भ्रष्टाचार को नकार रही है, उसके लिये भ्रष्टाचार का जीता जागता उदाहरण आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री स्व0 वाई0 एस0 आर0 रेड्डी के पुत्र जगनमोहन रेड्डी ने प्रस्तुत किया है। आगामी 8 मई को कड्डपा लोकसभा क्षेत्र के लिये होने वाले उपचुनावों के लिए जगनमोहन रेड्डी ने निर्वाचन आयोग को अपनी संपत्ति 365 करोड़ रूपये बताई है, जबकि 2009 में जब उन्होंने निर्वाचन आयोग को अपनी संपत्ति मात्र 77 करोड़ रूपये बताई थी। मात्र 23 महिनों में ही उनकी संपत्ति 5 गुना तक बढ़ गई । यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि स्व0 वाई0 एस0 आर0 रेड्डी कांग्रेस सरकार के ना केवल मुख्यमंत्री थे, बल्कि कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी के विश्वासपात्रों में से भी एक थे। उनकी आकस्मिक मृत्यु के बाद उनके पुत्र को कांग्रेस ने मुख्यमंत्री नहीं बनाया इसीलिये उन्होंने कांग्रेस को छोड़कर नइ पार्टी बना ली। इसके विपरीत दूसरी तरफ भारत के संभ्रांत नागरिक हैं जिनके द्वारा दिये गए आयकर से भारत सरकार को अब तक की सबसे बड़ी आय हुई है। हाल ही में एक समाचार ये भी आया है कि भारत सरकार को इस बार आयकर के रूप में 456 लाख करोड़ रूपयों की आमदनी हुई है। प्रश्न यह है कि भारत का रहने वाला नागरिक क्या इसलिये कर चुकाता है कि वह पैसा देश के विकास की बजाय इन नेताओं की जेबों में जाये।
दरअसल, भारत के राजनेताओं ने चुनावों को अपनी सुरक्षा का हथियार बना लिया है। ये लोग पैसे के बल पर ही सत्ता प्राप्त करते हैं, और सत्ता में आने के बाद वही पैसा कमाने के लिए लोकतंत्र की कमियों का फायदा उठाते हैं। प्रश्न यह भी है कि क्या लोकतंत्र का अर्थ जनता की आवाज को अनसुना करना ही होता है, क्या चुनावों का उत्सव इसलिये मनाया जाता है कि देश को जाति, वर्ग , भाषा में बांटकर सत्ता सुख की प्राप्ति की जा सके, और जिन मतदाताओं ने राजनीतिक दलों को सत्ता चलाने का अधिकार दिया है, उनकी आवाज को घोंट दिया जाए। आखिर वो कौनसी शिक्षा है जिसके चलते जो भी व्यक्ति जनप्रतिनिधि निर्वाचित हो जाता है, वह सदन में पहुंचते ही जनता के मुद्दों को गौण समझने लगता है और सत्ता को सर्वोच्च । आखिर कैसे जनप्रतिनिधियों को सदन में पहुँचते ही यह विशिष्ट योग्यता हासिल हो जाती है कि वे जनता की मांगों को शासक की अवज्ञा के रूप में लेने के लिये स्वतंत्र हो जाते हैं और शासन के प्रति अवज्ञा को कुचलने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। इन राजनेताओं ने लोकतंत्र जैसे वरदान को अभिशाप में बदल दिया है, इसी कारण नागरिकों का एक बड़ा वर्ग मतदान के प्रति अरूचि व्यक्त करने लगा है।
पहले बाबा रामदेव और अब अन्ना हजारे को भ्रष्ट साबित करने में अपनी उर्जा को खपा रहे राजनीतिक दलों के राजनेता क्या यह साबित करना चाहते हैं कि जो भी व्यक्ति भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलेगा, वे उस व्यक्ति को भी भ्रष्टाचार के दल दल में घसीट लेने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे । इसलिये जो भी व्यक्ति अपनी ईमानदारी को बचाकर रखना चाहते हैं वे भ्रष्टाचार के खिलाफ एक शब्द भी न बोलें। क्या यह माना जाए कि यह जनता को शासक वर्ग से मिल रही धमकी है ?
यह स्पष्ट रूप से समझे जाने की जरूरत है कि जो लोग अन्ना हजारे के समर्थन में सड़कों पर उतरे थे, वे केवल प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में शामिल करने की मांग पर नहीं आये थे। वे चाहते थे कि अन्ना हजारे भ्रष्ट मंत्रियों और अधिकारियों के खिलाफ होने वाले लोकतान्त्रिक आंदोलन के ठीक उसी प्रकार वाहक बनें जैसा कि जयप्रकाश नारायण ने 1975 में इंदिरा गांधी के अलोकतांत्रिक व्यवहार व सरकार के विरूद्ध किया था। लेकिन सत्ता में बैठे लोग अपने प्रभाव और पैसे के कारण भारत के नागरिकों को गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं।
अच्छा तो यह होता कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का दंभ भरने वाले राजनेता भ्रष्टाचार पर देश भर में चल रही बहस को देखते हुए इस मुद्दे पर संसद में बात करते, और जनता को यह विश्वास दिलाते कि भारत के राजनीतिक दल भी भ्रष्टाचार को जड़मूल से समाप्त करने के लिए कृतसंकल्पित हैं। प्रश्न यह है कि क्यों नहीं इस विषय पर सभी राजनीतिक दल अपने मतदाताओं को विश्वास दिलाने के लिये आमराय बनाते कि वे सब उस व्यवस्था को समाप्त करने के लिए संकल्पित हैं, जो भ्रष्टाचार की जननि है।
क्या वे इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि भारत के नागरिक अवज्ञा पर उतर जायें और सरकारों को सभी प्रकार के कर देने से मना कर दें। क्यों नहीं भारत के तमाम राजनेता भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जनमत संग्रह कराने का साहस दिखाते? या केन्द्र सरकार भ्रष्टाचार पर एक श्वेत पत्र जारी करती जो भारत की जनता को यह बता सके कि सरकार की नजर में देश में भ्रष्टाचार की क्या स्थिति है ? या जनता को ही यह अधिकार देते कि वह अपने द्वारा निर्वाचित जनप्रतिनिधि को वापस भी बुला सकती है।
स्व0 प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी जब नए नए प्रधानमंत्री बने थे, तो उन्होंने यह कहने का साहस दिखाया था कि केन्द्र सरकार से चला एक रूपया गांव तक आते आते 15 पैसा रह जाता है, ये बात अलग है कि बाद में उन्हीं राजीव गांधी पर बोफोर्स तोप के सौदे में दलाली खाने का आरोप लगा। उसी तरह का साहस स्व0 राजीव की पत्नी श्रीमती सोनिया गांधी के मार्गदर्शन में चलने वाली मनमोहन सिंह की सरकार क्यों नहीं कर पा रही है? प्रश्न यह भी महत्वपूर्ण है कि श्रीमती सोनिया गांधी की ऐसी कौनसी दुविधा है, जो उन्हैं अपने स्व0 पति की व्यथा को दूर करने से रोक रही है। क्या यह माना जाए कि उनके मार्गदर्शन में चलने वाली सरकारों में हो रहे भ्रष्टाचार को उनकी स्वीकृति प्राप्त है?
जरूरत इस बात की है कि विभिन्न राज्यों में सत्ता का सुख भोग रहे और भोग चुके राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के बारे में अपने मत को स्पष्ट करें, इस मुद्दे उनकी टालमटोल की नीति का अर्थ यह लगाया जाएगा कि वे भ्रष्टाचार का समर्थन करते हैं और आज के हालात में भ्रष्टाचार को अपरिहांर्य मानते हैं। हमें यह याद रखना होगा कि इस देश ने सदियों से अपने उपर हुए आक्रमणों को झेलकर भी अपने आप को बचाए रखा है और जब आक्रमण घर के भीतर से ही हो रहा हो तो जनप्रतिक्रिया कैसी होगी इसके लिए राजनेता भारत का इतिहास एक बार फिर पढ़ लें। अब जवाब राजनेताओं को देना है, देश की जनता उनके निर्णय का इंतजार कर रही है।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी
(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं)


Wednesday, April 6, 2011

भारत का भारत से संघर्ष

देश भर में भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहीम चल पड़ी है। इस बार भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहीम सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीविओं का एक बड़ा वर्ग चला रहा है। सुप्रसिद्ध समाज सेवी अन्ना हजारे ने भी भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए गांधीवादी तरीके से आमरण अनशन की शुरूआत की है, और आश्चर्य इस बात का है कि देश -विदेश में इमानदार प्रधानमंत्री के रूप में पहचाने वाले मनमोहन सिंह ने अन्ना हजारे से अपील की है कि वो इस मुद्दे पर आमरण अनशन ना करें। क्या इसका अर्थ यह लगाया जाना चाहिये कि देश के प्रधानमंत्री नहीं चाहते कि भ्रष्टाचार भारत में मुद्दा बनें, और यह भी कि वे कौन लोग हैं जिनको भ्रष्टाचार के मुद्दा बन जाने से अपने अस्तित्व पर संकट खड़ा होता नजर आ रहा है?
दरअसल, आजादी के बाद से ही शासन व्यवस्था को संभालने वाले अंग्रेंजों के हिन्दुस्तानी उत्तराधिकारियों ने भारत की जनता को शासक और शासित की मानसिकता से ही देखा और सत्ता का इस्तेमाल अपनी विपन्नता को सम्पन्नता में बदलने के लिए एक हथियार के रूप में किया। इन राजनेताओं ने स्वाधीनता सैनानियों के संघर्षो और बलिदानों के साथ ना केवल विश्वासघात किया अपितु भारत की उस बेबस जनता के विश्वास को भी छला जो इनसे आत्मगौरव और स्वाभिमान से युक्त भारत की संकल्पना सजाए बैठे थे। आज हालात यह हैं कि ये राजनेता सत्ता की प्राप्ति के लिए देश के मतदाताओं को ही खरीदने का दुस्साहस करने लगे हैं। अभी जिन पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं, वहां के राजनीतिक दल शराब से लेकर टी वी फ्रिज तक देकर वोटों को खरीदने का ना केवल दुस्साहस कर रहे हैं अपितु अपने इस अपराध में एक हद तक वे सफल भी हो रहे हैं।
इसी कारण पिछले कई सालों से भारत की प्रशासनिक एवं राजनीतिक व्यवस्था को भ्रष्टाचार की दीमक लग चुकी है और भ्रष्टाचार के विरूद्ध आम आदमी में ना केवल गहरी पीड़ा है, अपितु वह मन से आहत भी है। आजादी के बाद बनी पहली सरकार में ही भ्रष्टाचार की बू आने लग गई थी, लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ तब के राजनेताओं की चुप्पी और अनदेखी ने हालात को इतना बिगाड़ दिया कि आज पूरा देश भ्रष्टाचारियों से संत्रस्त है। किसी को यह विश्वास नहीं है कि भारत का प्रशासनिक, न्यायिक और राजनीतिक तंत्र भ्रष्टाचार से मुक्ती की अभिलाषा भी रखता है और इस अविश्वास के पीछे एक ठोस कारण भी है कि भारत की सरकारें आज तक यह सुनिश्चित नहीं कर पाई हैं कि भ्रष्टाचाररियों के लिए सत्ता के प्रतिष्ठानों में कोई भी स्थान नहीं है।
२०१० में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक सर्वे हुआ, ट्रांसपिरेसीं इन्टरनेशनल द्वारा विश्व के १७८ देशो में किये गये इस सर्वे में भारत को ८७ वें स्थान पर पाया गया और इसी संस्था ने यह भी दावा किया कि भारत विश्व के भ्रष्टतम देशो में से एक है। यहां तक कि दक्षिणी एशियाई देशो में भी भारत अपने पड़ोसी देशो (पाकिस्तान -143, बंगलादेश -134, नेपाल-146 और श्रीलंका - 92) से भ्रष्टाचार में बहुत आगे है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक तथ्य और क्या हो सकता है।
एक अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थान इन्टरनेशनल वाच डाग ने अपने अध्ययन में यह पाया है कि 1948 से 2008 तक के 60 सालों में 462 बिलीयन डालर यानी 20 लाख करोड़ से ज्यादा रूपये गैर कानूनी तरीके से भारत के बाहर ले जाए गए। यह राशि भारत के सकल घरेलु उत्पाद का 40 प्रतिशत है। और जिस 2 जी घोटाले को लेकर उच्चतम न्यायालय ने सरकार की नकेल कस रखी है, उससे यह राशि 12 गुना अधिक है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में आर्थिक विशेषज्ञ रहे श्री देव कार के अनुसार 11.5 प्रतिशत की दर से हमारे खून पसीने की कमाई को विदेशी बैंकों में जमा किया जा रहा है। तभी तो स्विस बैंक यह कहते हैं 1456 बिलियन डालर के साथ भारतीयों की
सर्वाधिक मुद्रा उनके बैंकों में जमा है। यह धन भारत पर कर्जे का 13गुना है। इन सब तथ्यों में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि विदेशी बैंकों में जमा इस काले धन का 50 प्रतिशत हिस्सा 1991 में लागू किये गए आर्थिक सुधारों के बाद ही इन बैंकों में पहुंचा, और यह याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि हमारे वर्तमान इमानदार प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ही उस समय वित्त मंत्री के रूप में भारत को अंतर्राष्ट्रीय बाजार बना रहे थे।
देश के प्रति अपराधों की श्रृंखला सिर्फ यहां ही नहीं थम रही है, पीढ़ियों से सत्ता पर काबिज राजनीतिक परिवारों में से एक गांधी परिवार, तमिलनाडू के करूणानिधि या जयललिता, आंध्रप्रदेश के चंद्र बाबू नायडू या स्व. मुख्यमंत्री वाइ एस आर रेड्डी, कर्णाटक के मुख्यमंत्री एस येडडूरप्पा, महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान खाद्य मंत्री शरद पवार, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती, पूर्व मुख्यमंत्री व घोषित समाजवादी मुलायम सिंह और लालू यादव, पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और जम्मू कश्मीर का अब्दुल्ला परिवार ऐसे राजनीतिक परिवारों के रूप में उभरे हैं, जिनकी काली कमाइयो के चर्चे उनके ही दलों के राजनीतिक कार्यकर्ता बड़े ही दंभ के साथ करते हैं, और भारत के लोकतंत्र की यह मजबूरी है कि बिना इन राजनीतिक दलों के सहयोग और सत्ता बंटवारे के कोई भी राजनीतिक दल सरकारें नहीं बना सकता। चाहे वो बोफोर्स खरीदने के मामले में राजीव गांधी को चुनौती देने वाले स्व० विश्वनाथ प्रताप सिंह हों या देश के पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी।
यह भ्रष्टाचार ही तो है कि आजादी के बाद से खरबों रूपये खर्च होने के बावजूद भारत के ग्राम अपनी किस्मत और बदहाली को बदल नहीं पाये हैं। वे पेयजल, सड़क, विद्यालय और चिकित्सालय जैसी आधारभूत सुविधाओं से भी वंचित हैं। देश के विकास में अपना श्रम पसीने की तरह बहा देने वाले मजदूर और किसान बी पी एल कार्ड में नाम लिखवाने के लिए संघर्षरत हैं। मध्यभारत के वनवासियों को विदेशी शक्तियां बंदूकें देकर भारत में ही आंतरिक संघर्षो को बढ़ावा दे रही हैं।
तो आज जब भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का आगाज हो रहा है, तो यह भारत की उसके विदेशी शत्रुओं से लड़ाई नहीं है, यह भारत का भारत के प्रति संघर्ष है। जहां अमीरों की संख्या जिस गति से बढ़ रही है, उतनी ही गति से किसान आत्महत्या कर रहे हैं, देश के 40 करोड़ लोगों को दो समय का निवाला नहीं मिल रहा है, विद्यालयों में जाने वाले छात्रों का प्रतिशत घट रहा है। भारत का प्रतिनिधित्व ऐसे लोगों के हाथों में है जिनके बदन भले ही मंहगी सिल्क के कपड़ों से ढ़के हैं, और उनकी सूरत समृद्ध भारत की चमक तो देती है, पर सीरत से वे ऐसे भारत का निर्माण कर रहे हैं जो बाजार है और यहां पर वही जीवित बचेगा, जिसके पास पैसे हैं चाहे वह हसन अली हो या गांधी परिवार।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी
(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं।)