पिछले दिनों विकीलीक्स द्वारा किये गए दो खुलासों ने भारतीयों को चिंता में डाल दिया है, इनमें एक खुलासा तो भारत के गृहमंत्री श्री पी चिदंबरम का अमरीकी राजदूत टिमोथी रोमर के मध्य हुई बातचीत का है, जिसमें पी चिदंबरम ने रोमर को कहा कि ’अगर भारत में पश्चिमी और दक्षिणी भाग ही होते तो भारत और ज्यादा समृद्ध होता‘। जिसका सीधा सा मतलब यह है कि हमारे गृह मंत्री भारत के अन्य भागों को पश्चिमी और दक्षिणी राज्यों पर भार समझते हैं और वे संविधान की मूल भावना के अनुसार भारत की ’एकता और अखण्ड़ता को बनाए रखने की शपथ’ में कोई यकीन ही नहीं रखते, और विकास और समृद्धी के नाम पर ही सही यदि भारत को विभाजित किया जाए तो उन्हैं कोई आपत्ति नहीं है।
और दूसरा खुलासा राज्य सभा में विपक्ष के नेता श्री अरूण जेतली की अमरीकी राजनायिक राबर्ट ब्लैक से हुई बातचीत है, जिसमें जेतली ने ब्लैक से कहा कि ’भारतीय जनता पार्टी के लिए हिन्दू राष्ट्रवाद एक अवसरवादी मुद्दा है। ‘जेतली का यह कहना दो संदेहों को जन्म देता है कि या तो जेतली, आज भी भारतीय जनता पार्टी के जन्म और उसके विकास यात्रा के सिद्धांत से अनभिज्ञ हैं या वे भारतीय जनता पार्टी को, उसके मातृ संगठनों को, उसके विचारों, सिद्धांतों और लाखों कार्यकर्ताओं को अपना गिरमिटिया मजदूर समझते हैं, जो उनकी कही हर बात का समर्थन करने को मजबूर हैं।
ये दोनों ही नेता भारतीय राजनीति में संभावना वाले राजनीतिज्ञ माने जाते हैं और दोनो ही नेताओं के लिए उनके दलों में यह माना जाता है कि वे भारत के प्रधानमंत्री होने की योग्यता रखते हैं। इसीलिए दोनों ही दल उन्हैं महत्व देते आये हैं और अपने दलों में प्राप्त इस महत्व के कारण ही उनका विदेशी राजनायिकों से मिलना जुलना लगा रहता है। जिससे वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को बना सकें। बंद कमरों में हुई इस बातचीत के सार्वजनिक हो जाने से इन दोनों ही नेताओं की ’ योग्यता‘ और सोच सामने आ गई है। इस पूरे प्रकरण का सबसे गंभीर पहलु यह है कि दोनों ही राजनेता भारत के दो प्रमुख दलों का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनकी इन बातों का उनके दलों के नीति और सिद्धांतों से मेल नहीं खाते।
पहला प्रश्न तो गृह मंत्री चिदंबरम से यह ही है कि क्या वे मानते हैं कि भारत में विभाजन की अभी और भी संभावनाएं हैं? और दूसरा यह कि उनके लिए भारत का मतलब क्या है? और यह भी कि उनके लिए देश का कौनसा हिस्सा भारत है? और उत्तर और पूर्वोत्तर भारत को और वहां के मतदाताओं को वे क्या मानते हैं? और यदि वे भारत के वर्तमान सांगठनिक स्वरूप को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, तो फिर वे असम से राज्यसभा में आनेवाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मंत्रीमंडल में मंत्री ही क्यों हैं? और आखिर ऐसी कौनसी मजबूरी है, जिसके चलते उत्तर प्रदेश से चुनकर आनेवाले सोनिया गांधी और राहुल गांधी से निर्देशित हो रहे हैं? इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि सरदार पटेल की विरासत एक ऐसा ’पढ़ा लिखा और विद्वान’ वकील संभाल रहा है, जिसको ना तो भारत की सांस्कृतिक विरासत की समझ है और ना ही उन्हें भारत की एकात्मता से ही कोई लेना देना है ।
क्या चिदंबरम को यह याद दिलाना पडे़गा कि दक्षिण भारत से ही आने वाले शंकर ने भारतवर्ष की संस्कृति, चेतना, और एकात्मता को देखते हुए पूरे भारत में चार शंकर पीठों की स्थापना कर वेदों को पुनर्स्थापित किया था, जिसके कारण उन्हैं आदिगुरू शंकराचार्य की उपाधि से विभूषित किया गया। क्या चिदंबरम को यह भी याद दिलाने की आवश्यकता है कि आज वे जिस मंत्रालय को संभाल रहे हैं, उस मंत्रालय को आजाद भारत में सरदार पटेल ने सबसे पहले संभाला था और उन्होंने अंग्रेजों की कूटनीति के उलट रियासतों में बंटे भारत को एक मजबूत गणतांत्रिक देश के रूप में विश्व पटल पर खड़ा कर दिया। बस एक ही जगह वे उस समय के चिदंबरम जैसे ’पढे़ लिखे और विद्वान’ राजनेता पं. जवाहर लाल नेहरू की बातों में आ गये और जम्मू कश्मीर रियासत के विलय का मामला उन्होंने पं. नेहरू पर छोड़ दिया।
और आज आजादी के 62 सालों के बाद भी जम्मू कश्मीर हमारे लिए एक समस्या बना हुआ है और अब तक हम उस पर एक लाख करोड़ रूपये से ज्यादा खर्च कर चुके हैं, इसके अलावा कितने ही सैनिक, जवान और नागरिक इसको भारत में बनाए रखने के लिए शहीद हुए हैं इसका जवाब गृहमंत्री श्री चिदंबरम के पास भी नहीं होगा।
चिदंबरम का यह विचार इसलिए भी भारत के प्रति देशद्रोह की श्रेणी में आता है कि जो व्यक्ति भारत के गृह मंत्री के रूप में काम कर रहा है, उसकी व्यक्तिगत सोच इस प्रकार की है। यह निर्णय कांग्रेस पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं को करना है कि वे चिदंबरम जैसे स्तरहीन और पृथकतावादी सोच के व्यक्ति को और कितने दिन तक ढ़ोते हैं। रहा, भारत की जनता का सवाल, वो तो चिदंबरम जैसे लोगों को चुनकर गलती कर चुकी है लेकिन वक्त आने पर इस गलती को वह सुधार भी सकती है।
दूसरी ओर राज्यसभा मे विपक्ष के नेता श्री अरूण जेतली हैं, जिन्होंने अपनी बातचीत में भारत की हिन्दू राष्ट्रवाद की चिंतन परंपरा को ही खारिज कर दिया है । क्या जेतली को यह याद दिलाने की जरूरत है कि भारतीय जनता पार्टी का जन्म ही हिन्दू राष्ट्रवाद के सिद्धांत और दोहरी सदस्यता के सवाल पर हुआ है। और क्या वे यह भी साबित करना चाहते हैं कि वे राष्ट्रवाद की राजनीति के ऐसे मुकाम पर पहुंच चुके हैं, जहां पर उनके बिना राष्ट्रवादी राजनीति एक कदम भी नहीं चल सकती। क्या अरूण जेतली यह कहने की ताकत रखते हैं कि वे अपने इस विचार पर मरते दम तक कायम हैं और इस मुद्दे पर होने वाले चुनावों में नगरपालिका चुनाव भी जीत सकते हैं, आम चुनावों की बात तो बहुत दूर की रही। अरूण जेतली का ’ज्ञान और विद्वता’ उनके पेशे के लिए भले ही सार्थक हो परन्तु राष्ट्रवादी राजनीति के लिए उनका यह ’ज्ञान’ मानसिक विक्षिप्तता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जो लोग भारतीय जनता पार्टी की राजनीति करते हैं, उन्हैं बलराज मधोक का उदाहरण याद रखना चाहिये, जो लोकप्रियता के शिखर पर होने के बावजूद इसलिये हाशिये पर डाल दिये गए, क्योंकि उन्होंने अपने आप को जनसंघ द्वारा स्थापित राजनीतिक सिद्धांत से उपर मान लिया था।
भारत के गृह मंत्री पी चिदंबरम और राज्य सभा में विपक्ष के नेता अरूण जेतली की अमरीकी राजनायिकों के साथ हुई बातचीत के खुलासे तो कम से कम यह ही साबित करते हैं कि देश की बागडोर ईमानदार राजनेताओं के हाथों में नहीं अपितु ऐसे नेताओं के हाथों में हैं, जो राजनीति में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए अपने देश के संविधान और कार्यकर्ताओं के अभिमान को किसी भी विदेशी ताकतों के आगे बेच सकते हैं। तो जब प्रश्न देश की अस्मिता का हो तो व्यक्ति का ज्ञान और विद्वता नहीं देखी जाती, सिर्फ यह देखा जाता है कि वह व्यक्ति अपने आप को देश के साथ कितना एकात्म कर पाया है और उसके मन में अपने देश और उसके संस्कारों के प्रति वो श्रद्धा है भी या नहीं जो प्राथमिक विद्यालय के प्रांगण में सिखाई जाती है।
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
लेखक सेंटर फॉर मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं।