LATEST:


विजेट आपके ब्लॉग पर

LATEST:


विजेट आपके ब्लॉग पर

Sunday, March 27, 2011

उजली सूरतों का सच

पिछले दिनों विकीलीक्स द्वारा किये गए दो खुलासों ने भारतीयों को चिंता में डाल दिया है, इनमें एक खुलासा तो भारत के गृहमंत्री श्री पी चिदंबरम का अमरीकी राजदूत टिमोथी रोमर के मध्य हुई बातचीत का है, जिसमें पी चिदंबरम ने रोमर को कहा कि ’अगर भारत में पश्चिमी और दक्षिणी भाग ही होते तो भारत और ज्यादा समृद्ध होता‘। जिसका सीधा सा मतलब यह है कि हमारे गृह मंत्री भारत के अन्य भागों को पश्चिमी और दक्षिणी राज्यों पर भार समझते हैं और वे संविधान की मूल भावना के अनुसार भारत की ’एकता और अखण्ड़ता को बनाए रखने की शपथ’ में कोई यकीन ही नहीं रखते, और विकास और समृद्धी के नाम पर ही सही यदि भारत को विभाजित किया जाए तो उन्हैं कोई आपत्ति नहीं है।
और दूसरा खुलासा राज्य सभा में विपक्ष के नेता श्री अरूण जेतली की अमरीकी राजनायिक राबर्ट ब्लैक से हुई बातचीत है, जिसमें जेतली ने ब्लैक से कहा कि ’भारतीय जनता पार्टी के लिए हिन्दू राष्ट्रवाद एक अवसरवादी मुद्दा है। ‘जेतली का यह कहना दो संदेहों को जन्म देता है कि या तो जेतली, आज भी भारतीय जनता पार्टी के जन्म और उसके विकास यात्रा के सिद्धांत से अनभिज्ञ हैं या वे भारतीय जनता पार्टी को, उसके मातृ संगठनों को, उसके विचारों, सिद्धांतों और लाखों कार्यकर्ताओं को अपना गिरमिटिया मजदूर समझते हैं, जो उनकी कही हर बात का समर्थन करने को मजबूर हैं।
ये दोनों ही नेता भारतीय राजनीति में संभावना वाले राजनीतिज्ञ माने जाते हैं और दोनो ही नेताओं के लिए उनके दलों में यह माना जाता है कि वे भारत के प्रधानमंत्री होने की योग्यता रखते हैं। इसीलिए दोनों ही दल उन्हैं महत्व देते आये हैं और अपने दलों में प्राप्त इस महत्व के कारण ही उनका विदेशी राजनायिकों से मिलना जुलना लगा रहता है। जिससे वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को बना सकें। बंद कमरों में हुई इस बातचीत के सार्वजनिक हो जाने से इन दोनों ही नेताओं की ’ योग्यता‘ और सोच सामने आ गई है। इस पूरे प्रकरण का सबसे गंभीर पहलु यह है कि दोनों ही राजनेता भारत के दो प्रमुख दलों का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनकी इन बातों का उनके दलों के नीति और सिद्धांतों से मेल नहीं खाते।
पहला प्रश्न तो गृह मंत्री चिदंबरम से यह ही है कि क्या वे मानते हैं कि भारत में विभाजन की अभी और भी संभावनाएं हैं? और दूसरा यह कि उनके लिए भारत का मतलब क्या है? और यह भी कि उनके लिए देश का कौनसा हिस्सा भारत है? और उत्तर और पूर्वोत्तर भारत को और वहां के मतदाताओं को वे क्या मानते हैं? और यदि वे भारत के वर्तमान सांगठनिक स्वरूप को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, तो फिर वे असम से राज्यसभा में आनेवाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मंत्रीमंडल में मंत्री ही क्यों हैं? और आखिर ऐसी कौनसी मजबूरी है, जिसके चलते उत्तर प्रदेश से चुनकर आनेवाले सोनिया गांधी और राहुल गांधी से निर्देशित हो रहे हैं? इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि सरदार पटेल की विरासत एक ऐसा ’पढ़ा लिखा और विद्वान’ वकील संभाल रहा है, जिसको ना तो भारत की सांस्कृतिक विरासत की समझ है और ना ही उन्हें भारत की एकात्मता से ही कोई लेना देना है ।
क्या चिदंबरम को यह याद दिलाना पडे़गा कि दक्षिण भारत से ही आने वाले शंकर ने भारतवर्ष की संस्कृति, चेतना, और एकात्मता को देखते हुए पूरे भारत में चार शंकर पीठों की स्थापना कर वेदों को पुनर्स्थापित किया था, जिसके कारण उन्हैं आदिगुरू शंकराचार्य की उपाधि से विभूषित किया गया। क्या चिदंबरम को यह भी याद दिलाने की आवश्यकता है कि आज वे जिस मंत्रालय को संभाल रहे हैं, उस मंत्रालय को आजाद भारत में सरदार पटेल ने सबसे पहले संभाला था और उन्होंने अंग्रेजों की कूटनीति के उलट रियासतों में बंटे भारत को एक मजबूत गणतांत्रिक देश के रूप में विश्व पटल पर खड़ा कर दिया। बस एक ही जगह वे उस समय के चिदंबरम जैसे ’पढे़ लिखे और विद्वान’ राजनेता पं. जवाहर लाल नेहरू की बातों में आ गये और जम्मू कश्मीर रियासत के विलय का मामला उन्होंने पं. नेहरू पर छोड़ दिया।
और आज आजादी के 62 सालों के बाद भी जम्मू कश्मीर हमारे लिए एक समस्या बना हुआ है और अब तक हम उस पर एक लाख करोड़ रूपये से ज्यादा खर्च कर चुके हैं, इसके अलावा कितने ही सैनिक, जवान और नागरिक इसको भारत में बनाए रखने के लिए शहीद हुए हैं इसका जवाब गृहमंत्री श्री चिदंबरम के पास भी नहीं होगा।
चिदंबरम का यह विचार इसलिए भी भारत के प्रति देशद्रोह की श्रेणी में आता है कि जो व्यक्ति भारत के गृह मंत्री के रूप में काम कर रहा है, उसकी व्यक्तिगत सोच इस प्रकार की है। यह निर्णय कांग्रेस पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं को करना है कि वे चिदंबरम जैसे स्तरहीन और पृथकतावादी सोच के व्यक्ति को और कितने दिन तक ढ़ोते हैं। रहा, भारत की जनता का सवाल, वो तो चिदंबरम जैसे लोगों को चुनकर गलती कर चुकी है लेकिन वक्त आने पर इस गलती को वह सुधार भी सकती है।
दूसरी ओर राज्यसभा मे विपक्ष के नेता श्री अरूण जेतली हैं, जिन्होंने अपनी बातचीत में भारत की हिन्दू राष्ट्रवाद की चिंतन परंपरा को ही खारिज कर दिया है । क्या जेतली को यह याद दिलाने की जरूरत है कि भारतीय जनता पार्टी का जन्म ही हिन्दू राष्ट्रवाद के सिद्धांत और दोहरी सदस्यता के सवाल पर हुआ है। और क्या वे यह भी साबित करना चाहते हैं कि वे राष्ट्रवाद की राजनीति के ऐसे मुकाम पर पहुंच चुके हैं, जहां पर उनके बिना राष्ट्रवादी राजनीति एक कदम भी नहीं चल सकती। क्या अरूण जेतली यह कहने की ताकत रखते हैं कि वे अपने इस विचार पर मरते दम तक कायम हैं और इस मुद्दे पर होने वाले चुनावों में नगरपालिका चुनाव भी जीत सकते हैं, आम चुनावों की बात तो बहुत दूर की रही। अरूण जेतली का ’ज्ञान और विद्वता’ उनके पेशे के लिए भले ही सार्थक हो परन्तु राष्ट्रवादी राजनीति के लिए उनका यह ’ज्ञान’ मानसिक विक्षिप्तता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जो लोग भारतीय जनता पार्टी की राजनीति करते हैं, उन्हैं बलराज मधोक का उदाहरण याद रखना चाहिये, जो लोकप्रियता के शिखर पर होने के बावजूद इसलिये हाशिये पर डाल दिये गए, क्योंकि उन्होंने अपने आप को जनसंघ द्वारा स्थापित राजनीतिक सिद्धांत से उपर मान लिया था।
भारत के गृह मंत्री पी चिदंबरम और राज्य सभा में विपक्ष के नेता अरूण जेतली की अमरीकी राजनायिकों के साथ हुई बातचीत के खुलासे तो कम से कम यह ही साबित करते हैं कि देश की बागडोर ईमानदार राजनेताओं के हाथों में नहीं अपितु ऐसे नेताओं के हाथों में हैं, जो राजनीति में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए अपने देश के संविधान और कार्यकर्ताओं के अभिमान को किसी भी विदेशी ताकतों के आगे बेच सकते हैं। तो जब प्रश्न देश की अस्मिता का हो तो व्यक्ति का ज्ञान और विद्वता नहीं देखी जाती, सिर्फ यह देखा जाता है कि वह व्यक्ति अपने आप को देश के साथ कितना एकात्म कर पाया है और उसके मन में अपने देश और उसके संस्कारों के प्रति वो श्रद्धा है भी या नहीं जो प्राथमिक विद्यालय के प्रांगण में सिखाई जाती है।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी
लेखक सेंटर फॉर मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं।

Tuesday, March 15, 2011

क्या मनमोहन सिंह भारत के प्रधानमंत्री हैं ?

जब जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दिखते हैं तो उनकी भाव भंगिमा देखकर एक ही प्रश्न परेशान करता है कि क्या मनमोहन सिंह अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, चीन के राष्ट्रपति हू जिन्ताओ या फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस जरकोजी या रूसी राष्ट्रपति दिमित्र मेदेवदेव या इंग्लैंड के प्रधानमंत्री डेविड केमरुन जितने असरदार और चमकदार राजनेता हैं? और क्या विनम्र और धीमी आवाज वाले विद्वान मनमोहन सिंह कहीं से भी पूरे विश्व को और भारत के नागरिकों को भारत का प्रधानमंत्री होने का आभास दे पा रहे हैं हैं

प्रश्न यह भी है कि क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश के स्वाभिमान का उत्कट और चमकता हुआ चेहरा हैं, और उसी तरह पूरे विश्व में भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं जैसा कि पूर्व में नेहरू, इंदिरा, राजीव, नरसिंहराव, चंद्रशेखर या अटलबिहारी वाजपेयी करते थे या मनमोहन सिंह किसी राज्य सरकार के मुख्य सचिव या ऐसे ही किसी नौकरशाह की तरह दिखते हैं, जिसकी जिम्मेदारी अपने बॉस के आदेशों को पूरा करने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। चाहे देश की आवाज कुछ भी हो और बॉस कितना ही पथभ्रष्ट क्यों ना हो?

तो यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठ खड़ा होता है कि भारत का प्रधानमंत्री कैसा होना चाहिये? क्या हमें ऐसा प्रधानमंत्री चाहिये जो एक बार भी लोकसभा से चुनकर नहीं आया हो, और ना ही लोकसभा चुनाव लड़कर सदन में आने की इच्छा रखता हो। और यह भी कि वह व्यक्ति भारत के नागरिकों द्वारा चुनी गई लोकसभा का कभी सदस्य ही नहीं रहा और प्रधानमंत्री बनने के बावजूद उसने कभी लोकसभा में जाने और उसका नेतृत्व करने की चुनौती को स्वीकार नहीं किया। यह प्रश्न उस व्यक्ति के लिए आश्चर्यजनक लग सकता है जो विगत 7 सालों से देश के प्रधानमंत्री के रूप में काम कर रहा हो, और जरा यह भी सोचने की बात यह भी है कि इन 7 सालों में उस प्रधानमंत्री से जनता से सीधे संवाद के लिए कितनी जनसभाओं को संबोधित किया है?

क्या संविधान के निर्माताओं ने इसी दिन के लिए राज्यसभा की रचना की थी कि देश की बागडोर संभालने वाला व्यक्ति लोकसभा में आने के लिए निर्धारित चुनाव प्रक्रिया का पालन नहीं करे और संविधान में प्रदत्त इस छूट का इस्तेमाल पद पर बने रहने के लिए करे? यदि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी जगह सही हैं तो फिर प्रश्न यह भी उठता है कि नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक जितने भी प्रधानमंत्री इस देश में हुए हैं, उन्होंने लोकसभा का चुनाव ही क्यों लड़ा? क्या उनके लिए राज्यसभा में निर्वाचित होना दुरूह कार्य था?

1991 में नरसिंहराव मंत्री मंडल में वित्त मंत्री के रूप में शामिल हुए मनमोहन सिंह ने राज्यसभा के जरिये देश की सर्वोच्च नियामक संस्था संसद में प्रवेश किया। उनका पहला कार्यकाल 4 वर्ष के लिए था। उसके बाद से लेकर आज तक वे 3 बार संसद में पहुंचते रहे हैं और हर बार वे जनता द्वारा चुने जाने की अपेक्षा पार्टी के प्रतिनिधि बनकर राज्यसभा में ही पहुंचते हैं। तो क्या ये माना जाना चाहिये कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जवाबदेही देश की जनता के प्रति नहीं अपितु पार्टी के पदाधिकारियों के प्रति है, जो उनका राज्यसभा में जाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। क्या यह प्रश्न भी नहीं पूछा जाना चाहिये कि हमारे प्रधानमंत्री लोकसभा चुनावों से क्यों कतराते हैं? 1991 से लेकर आज तक 4 बार आम चुनाव हो चुके हैं और 1998 के लोकसभा चुनावों में नई दिल्ली से चुनाव लड़ने (जिसमें वे पराजित हो गये थे) के अलावा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कभी कोई और चुनाव लड़ने का प्रयास ही नहीं किया।

बात सिर्फ राजनीतिक व्यवस्था के तहत एक पद को भरे जाने की नहीं है। यह प्रश्न सांस्कुतिक और भाषाई विविधता वाले दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र के नेतृत्व का है। यदि पद ही भरना होता तो सोनिया गांधी भी भर सकती थीं, लेकिन उनका विरोध राजनीतिक दलों ने इस आधार पर किया कि वे सम्पूर्ण विश्व में भारत का चेहरा नहीं हो सकती ? वे स्व0 राजीव गांधी की पत्नी हो सकती हैं लेकिन इंदिरा नहीं हो सकती। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भले ही ईमानदार और बुद्धिमान व्यक्ति की तरह जाने जाते हैं लेकिन वे भारत के गौरवशाली अतीत और उसके आत्म स्वाभिमान को प्रकट नहीं करते। उनकी छवि एक ऐसे प्रशासक के रूप में उभरकर सामने रही है जो बेबस और बेचारा है। जिसका इकबाल ना तो उसके मंत्री मंडलीय सहयोगी ही मानते हैं और ना ही उनका राजनीतिक दल। वे तो एक ऐसे बडे बाबू की तरह दिख रहे हैं जिनकी नाक के नीचे 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला हो जाता है, और वे कुछ नहीं कर पाते। एक मंत्री क्रिकेट मैच में अपनी हिस्सेदारी तय करता है और उन्हैं पता नहीं चलता, एक मंत्री अपनी गलत नीतियों के कारण महंगाई को बढ़ाकर मुनाफाखोरी को बढ़ावा दे रहा है और वे बेबस हैं। पूरा देश चीख चीख कर भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ सड़कों पर रहा है और वे मुख्य सतर्कता आयुक्त के पद पर भ्रष्ट आचरण के दोषी व्यक्ति कोअज्ञानवश नियुक्त कर देते हैं।

वे पाकिस्तान के साथ परदे के पीछे ना जाने क्या बात करते हैं जिसका पता मंत्री मंडलीय सहयोगियों को भी नहीं होता है, विपक्ष की बात तो बहुत दूर की रही। वे कहने को तो सरकारी खजाने से एक रूपये का वेतन लेते हैं लेकिन उन्हीं के नेतृत्व में चल रही सरकार की अनियमितताओं पर वे कोई जवाब दे नहीं पाते।

इसलिये जब हम सांस्कृतिक और भाषाई विविधता और विशाल लोकतंत्र वाले भारत के नेतृत्व की बात करते हैं तो निश्चित ही सरदार मनमोहन सिंह बौने नजर आते हैं। स्वतंत्र भारत में इतना कमजोर प्रधानमंत्री कार्यालय उस समय भी नहीं हुआ, जब गुलजारी लाल नंदा, एच डी देवगौडा या इंद्र कुमार गुजराल मजबूरी में प्रधानमंत्री बनाए गए थे। हो सकता है कि मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बने रहने की कोई मजबूरी हो, यह भी संभव है कि उनकी पार्टी के नेताओं के पास मनमोहन सिंह से ज्यादा योग्य व्यक्ति इस पद के लिए ना हो, लेकिन भारत की 118 करोड़ की जनता ऐसे किसी भी व्यक्ति को प्रधानमंत्री के पद नहीं देखना चाहती जो बेबस और लाचार हो तथा उसको अपने हर कार्य की मंजूरी लेने के लिए एक नौकरशाह की तरह भाग दौड़ करनी पड़ती हो और वो जनता के प्रति अपनी जवाबदेही समझने की बजाय अपने बॉस के प्रति निष्ठां रखता हो .

सुरेन्द्र चतुर्वेदी

(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं)